अब जब मित्रो ने इतना इसरार किया है तो हमने सोचा कि चलो वर्मा जी की फैमिली की दास्तान लिख दी जाय. अब यहाँ पर ऐसे कई अनकहे किस्से बयां होंगे और ऐसे कई खुलासे होंगे जिससे वर्मा जी नाराज हो सकते है, अब वर्माजी नाराज होते है तो होते रहें, लेकिन हम अपने पाठको को थोड़े ही नाराज कर सकते है.
हाँ तो जनाब, हमारे मोहल्ले मे रहता था वर्माजी का परिवार, परिवार मे कुल जमा पाँच लोग थे, वर्माजी, वर्माइन,बड़की वर्माजी की बड़ी लड़की, छुटकी वर्मा जी की छोटी बिटिया और वर्मा का साला........ नाम मेरे को याद नही.साले साहब(अभी रिफ्ररेन्स के लिये इनका नाम हम बउवा रख देते है,आगे कभी सही नाम पता चलेगा तो करैक्ट कर लेंगे), पूरे मोहल्ले मे साले साहब के नाम से ही मशहूर थे,क्यो? अब मेरे से क्यों पूछते हो, मोहल्ले के रामआधार हलवाई से पूछो, या फिर नत्थू पनवाड़ी से, या फिर किराने वाले गुप्ताजी से जहाँ से साले साहब माफ कीजियेगा बउवा, सामान तो ले आते थे, पैसे देने के नाम पर वर्मा जी का नाम टिकाय आते थे. बउवा की हरकतों से वर्माजी तो बहुत परेशान थे मगर रिश्ता ऐसा था कि कुछ कहते नही बनता था.
साले साहब के मशहूर होने के और भी कई कारण थे....एक घटना हुई की पूरा का पूरा मोहल्ला साले साहब को नही भूल पाया........
बउवा शहर आने से पहले तक गांव मे ही थे, वहाँ पर भी वो कोई तीर नही मार रहे थे. बाकायदा गाँव की लड़कियो को छेड़ा करते थे, कई बार पिट चुके थे, गाँव वालो ने अपनी बहू बेटियों को सख्त हिदायत दे रखी थी, कि इस बन्दे के आसपास भी ना फटके.......और तो और गांव वालो ने बउवा की हरकतों के कारण इनके परिवार का हुक्का पानी बन्द कर रखा था, तो परिवार वालो ने सोचा कि अब इन्हे कहाँ ठिकाने लगाया जाय, सो खूब सोच विचार कर वर्माइन को चिट्ठी लिखी गयी, वर्माइन जो अपने गांव मे पहले ही ढेर सारी ढींगे हाँक चुकी थी, कि शहर मे हमारा ये है, वो है वगैरहा वगैरहा. जब उनको चिटठी मिली तो एकदम सकपका गयी, वो अपने भाई की हरकते जानती थी, और जानती थी, अगर बउवा शहर मे आ गया तो अखबार मे नाम छपना तो तय है, लेकिन अब करें क्या वर्मा जी को कैसे पटाया जाय. आखिर उनको आइडिया मिल ही गया.शाम भयी, वर्मा साहब किसी तरह से अपने खटारा लम्ब्रेटा को खींचते खांचते या कहो धकियाते हुए घर पहुँचे, वर्माइन ने मिल कर स्कूटर चबूतरे पर चढवायी, चाय का पानी रखा, और वर्माजी को मोहल्ले की अधपकी खबरें सुनाना शुरू कर दी, कुछ सच्ची कुछ मसाला मारकर.........जैसे इसका चक्कर उससे, इसका आना जाना उसके घर वगैरहा वगैरहा.कुल मिलाकर सार ये था कि जमाना खराब है, लड़किया जवान हो रही है, आप दिन भर आफिस मे रहते हो , मै अपने काम काज मे, लड़कियों की देखभाल करने वाला कोई नही वगैरहा वगैरहा. वर्माजी समझ तो गये ही थे, दाल मे कुछ काला जरूर है, फिर भी अनजान बने रहने का ढोंग करते रहे, वर्माइन ने बात आगे बढायी और क्यो ना मै अपने भाई बउवा को शहर बुलवा लें.
बउवा का नाम सुनते ही वर्मासाहब की त्योरियां चढ गयी, दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया, बोले यह नामुमकिन है, वो नालायक....वर्माजी बउवा को इसी नाम से पुकारते थे.. यहाँ नही रह सकता.......गांव मे क्या कम बदनाम है जो यहाँ बुलाकर अपनी भद पिटवायी जाय... लेकिन वर्माइन थी कि अड़ गयी तो अड़ गयी........ .अब औरतजात के आगे हम अबला मर्दो की कहाँ चलती है, दो चार दिन मे ही वर्माजी को हथियार ड़ाल देने पड़ गये. सो बऊवा शहर पधारे.
अब आप कहेंगे कि इतनी सारी कथा करने की क्या जरूरत थी, ये बात तो दो लाइनो मे कही जा सकती थी. नही समझे ना? अरे भइया अगर ये बात अगर हमे दो लाइनो मे कह देते तो फिर अगला पूरा पैराग्राफ बऊवा के चरित्र चित्रण मे ना झिलाते, उस से तो आप बच गये ना. अब बचने बचाने की छोड़ो, आगे पढो
अब जब बउवा कानपुर पधारे तो सबसे पहले उनका सामना हमीं से ही हुआ, हुआ यूँ कि हमे मोहल्ले के सारे लड़के सड़क पर खेल रहे थे, हमने देखा गांव के एक जनाब जो कि रात के समय भी काला चश्मा पहने, बालों मे चमेली का तेल, कोई घटिया सा इत्र लगाये, रंग बिरंगी शर्ट, ऊपर से अंगोछा लपेटे, बिना मैचिंग का बैलबाटम,हाथ मे टिन की अटैची लिये, हमारे ग्रुप से वर्मा जी पता पूछने लगे, वैसे वर्माजी के रिलेशन मोहल्ले मे सबसे अच्छे थे लेकिन वो वानर सेना वाला किस्सा होने के बाद, हम मोहल्ले के लड़को मे उनकी रेप्यूटेशन कोई खास अच्छी नही थी, हमने सोचा चलो, वर्मा ना सही,उसका साला सही, बैठे बिठाये मौका मिल गया,कुछ तो हिसाब किताब चुकता किया जाय, हमने इन जनाब से पूरी कहानी समझी,वर्मा परिवार से रिलेशनशिप समझी,शहर आने का अभिप्राय समझा और फिर तुरत फुरत बनी योजना अनुसार इनको मोहल्ले के कल्लू पहलवान के घर का पता बता दिया..........कल्लू पहलवान की भी कुछ अजीब दास्तां है.
कल्लू की पहली पत्नी स्वर्ग सिधार गयी थी, तो कल्लू ने दूसरी शादी की, अपने से आधी से भी कम उम्र की लड़की से, अच्छे घर की लड़की तो मिली नही, पता नही कहाँ से उठा लाया था..........लेकिन आइटम सालिड था....लैटेस्ट माडल था......शादी बेमेल थी.......सुना था लड़की ने शादी घरवालो के दबाव मे आकर की है. लड़की,लड़की को कल्लू कतई पसन्द नही था,कल्लू के सामने तो उसकी बेटी जैसी दिखती थी........लड़की चुलबुली थी, मन नटखट था और दिल शरारती....ऊपर से जवान खून......लड़की का सारा टाइम खिड़की पर ही बीतता... घन्टो घन्टो वहीं खड़ी रहती, और हर आने जाने वालो को हसरत भरी निगाहो से देखती,अब हम लोग क्यो कहे कि चरित्रहीन थी कि नही........ लेकिन मार पड़े इन मोहल्लेवाले को जो कहते थे कि लड़की का चालचलन कुछ ठीक नही था......हम तो बस आप लोगो को स्टोरी सुना रहे है, किसी का चरित्रहनन थोड़े ही कर रहे है.........खैर जनाब लोगो को तो जैसे मनोरंजन का साधन मिल गया, हमारे मोहल्ले मे दूसरे मोहल्लो के लोगो की आवाजाही बढ गयी, बात कल्लू तक पहुँची,खूब मार कुटाई, हुई, रोना धोना हुआ, आखिरकार साल्यूशन के रूप मे कल्लू ने खिड़की चुनवा दी,
अब वो इश्क ही क्या जो दीवारो मे चुनवाया जा सकें, अब जब रोक लगी तो बात हद से पार होने लगी, कुछ मनचले,जिनकी सैटिंग खिड़की बन्द होने से पहले ही हो चुकी थी.........कल्लू की बीबी का दीदार पाने के लिये, हिम्मत करके कल्लू के घर तक मे घुसे....... लोगो मे रोजाना चर्चा रहती थी कि, आज कौन कल्लू के घर कौन घुसा, और कितनी देर रहा, अब मे यहाँ कल्लू पुराण तो लिखने बैठा नही हूँ, सो कल्लू वाला किस्सा जल्दी समेटते है, तो जनाब एक बार कल्लू ने एक बन्दे को अपने घर मे रंगे हाथो (....मुझे आज तक इस मुहावरे का सही अर्थ नही समझ मे आया... ये काम काज के बीच मे रंगाई पुताई कहाँ से आ गयी) पकड़ लिया और फिर क्या था, वो बन्दा,कल्लू और उसका लट्ठ,कल्लू ने अपने तेल पिलाये लट्ठ को दे दना दे दना दन इस्तेमाल किया... तब से कल्लू बड़ा सावधान रहने लगा, और अपने घर की पूरी तरह से रखवाली रखता है.अपने घर मे घुसने वाले बन्दे को बख्शता नही है.शाम का वक्त था...कल्लू कुछ सामान लेने गुप्ता जी की दुकान पर गया हुआ था, तभी हमने बउवा को तुरत फुरत बनी योजनानुसार कल्लू के घर का पता बताया था.
अब बउवा बेचारा,गाँव का भोला भाला जवान, नासमझ, वर्मा के दुश्मनो की साजिश मे फंस गया..... उसे क्या पता कि मुसीबत उसका इन्तजार कर रही है, वो तो बेचारा अपनी बहन का घर सोच कर अन्दर दाखिल हुआ, अटैची नीचे जमीन पर रखी, उसको खोला, बहन के लिये लायी साड़ी निकाली, शायद मन मे बहन को सरप्राइज देने की सोची होगी.......और देसी इत्र का फाहा अपने कानो के पीछे लगाया और काफी सारा अपने कपड़ो पर उड़ेला,ताकि पसीने की बदबू किसी को ना आये और दरवाजा खटखटा दिया....सामने थी कल्लू पहलवान की बीबी...दोनो की नजरे मिली, दोनो ने एक दूसरे को देखा.....लव एट फर्स्ट साइट, बउवा समझा कि जीजी ने कौनो किरायेदार रखा है,सो अन्दर दाखिल हो गया... कल्लू की बीबी पर तो इत्र ने पहले से ही जादू कर रखा था...ऊपर से साड़ी हाथ मे लिये बांका गबरू जवान , सोची खुद चलकर आया है....चलो ये ही ठीक है.....जब तक कल्लू नही आता इसी को समझा जाय........वैसे भी कल्लू के जल्दी आने की उम्मीद नही थी.......... इधर वानर सेना ने गुप्ताजी की दुकान पर जहाँ कल्लू खड़ा था, उड़ती उड़ती खबर पहुचा दी कि कल्लू के घर आधे घन्टे पहले कोई घुसा है, बस फिर क्या था...आगे आगे आगबबूला कल्लू, पीछे पीछे पूरी वानर सेना......रास्ते भर हम लोग कल्लू को अन्दर घुसने वाले व्यक्ति के कद काठी और वेषभूषा के बारे मे पूरी तरह से बता दिये.......................... अब कल्लू अपने घर के दरवाजे पहुँच गया था... हम लोग भी किसी विस्फोटक घटना का इन्तजार कर रहे थे..........अन्दर का हाल भी सुन लीजिये......अब तक दोनो ही समझ चुके थे कि रांग नम्बर डायल हो चुका है, लेकिन दोनो ही अपनी अपनी आदत से मजबूर थे.... चोर चोरी से जाय हेराफेरी से ना जाय.....बउवा सोचे कि गांव की तरह शहर मे भी लाटरी लग गयी उसकी और कल्लू की बीबी भी सोची दिखने मे गंवार है तो क्या हुआ.....कोई जरूरी थोड़ी है कि हर चीज मे गंवार हो........... अभी कुछ होने ही वाला था कि बाहर खड़े कल्लू ने दरवाजा भड़भड़ाया......भड़भड़ाने की आवाज से ही कल्लू की बीबी समझ चुकी थी........ ये कल्लू ही है, उसने बउवा की ओर देखा...वो भी समझ गया.. खाया पिया कुछ नही गिलास तोड़ा बारह आना ............. लेकिन अब करे तो क्या करे....कल्लू की बीबी ने कुछ समझदारी दिखायी और बउवा को अन्धेरी कोठरिया मे रखे बिस्तरों के पीछे छुपा दिया,अब कहते है ना कि विनाशकाले विपरीत बुद्दि...दरअसल कल्लू का लट्ठ भी बिस्तरों के पीछे ही रहता था.. और फिर अपना आंचल सम्भालकर, घबराते हुए दरवाजा खोला.......... दरवाजा खोलकर देखा तो बाहर आगबबूला कल्लू पहलवान साथ मे वानर सेना...कल्लू ने पूछा....कहाँ छुपा रखा है अपने चाहने x#$%!%& वाले को..................कुछ नही बोली................... कमरे मे इत्र की सुगन्ध और टेबिल पर रखी साड़ी, पूरी बात बयां कर रही थी........................कल्लू ने इधर उधर ढूंढना शूरू कर दिया........कल्लू की बीबी को मानो सांप सूंघ गया......समझ गयी, कि बचना मुश्किल है, दिमाग लड़ाया और तुरन्त फुरन्त पाला बदला, फूट फूट कर रोने लगी और कल्लू के गले से लिपट गयी........ कल्लू ने गरजकर फिर पूछा "कहाँ है वो?" तो उसने सिसकते हुए अन्धेरी कोठरिया मे रखे बिस्तरो की और इशारा कर दिया. इधर बउवा का हाल पूछा तो ..........बउवा की हालत तो उस बकरे की तरह से थी जिसको अभी थोड़ी ही देर मे हलाल होना था.कल्लू ने सबसे पहले अपने लट्ठ को ढूंढा और अपने कब्जे मे किया... फिर बिस्तरो
को हटाना शुरू कर दिया ................तो पाया कि अपने बउवा सिमटे से, सहमे से खड़े है, कल्लू ने फिर गिना नही दे दनी दन, दे दनी दन.... वो पिटाई की बउवा की, कि हम क्या बतायें........... बउवा जब तक अपना परिचय देता, तब तक तो अनगिनत लट्ठ पड़ ही चुके थे....उसके बाद भी, वो इत्र और साड़ी का एक्सप्लेनेशन नही दे पा रहा था... .......पहले तो कल्लू ने उसे खूब कूटा उसके बाद वानर सेना भी इस नेक काम मे पीछे नही रही.........हमने भी पूरी तरह से समाज सेवा की.....बात अब तक मोहल्ले मे पहुँच चुकी थी... कि कोई एक बन्दा जम के कूटा जा रहा है, कल्लू पहलवान के घर........पूरे मोहल्ले मे हाहाकार मच गया.......जिसके हाथ जो लगा, उठाकर पीटने निकल पड़ा . वर्माजी भी अपने मित्र के साथ देखने चले आये........क्यो? अरे कोई मनाही थोड़ी थी... दुनिया जा रही थी तो वर्माजी क्यों पीछे रहते.....
मोहल्ले वालो के साथ साथ वर्मा ने भी दो चार हाथ मारकर अपना पड़ोसी धर्म निभाया........अब तक बउवा पिट पिटकर अधमरे हो चुके थे......फिर पकड़कर बउवा को रोशनी मे ले जाया गया....ताकि पहचान तो हो सके..............रोशनी मे बउवा ने अपने जीजा और जीजा ने अपने साले को पहचान लिया......पूरा भरत मिलाप हुआ....... वैसे वर्माजी मन ही मन खुशी हुई कि बउवा को पीटकर अपनी बरसों पुरानी इच्छा को पूरा भी कर लिया था और इल्जाम भी नही लगा.........जो लोग बउवा को मार रहे थे, अब उसके कपड़े ठीक करने लगे.... कुछ लोग थू थू कर अपने घर को लौट गये.......बाकी लोगो को कल्लू और वर्मा ने मिलकर विदा किया या कहो भगाया........ ... ...बउवा से पूरी कहानी सुनी........ समझ गये कि मोहल्ले के लड़को ने चिकायीबाजी की है, खैर अब क्या हो सकता था... कल्लू ने बउवा से माफी मांगी....बउवा के जख्मो पर मलहम लगायी........बउवा और कल्लू की बीबी की पहली मुलाकात सटीक रही..., दोनो के मन मे कुछ कुछ होने लगा था, दोनो पहली मुलाकात मे एक दूसरे को दिल दे बैठे............
बउवा अपने जख्मो को सहला सहलाकर सिसक रहा था, पहलवान शर्मिन्दा था.... उसकी बीबी मन ही मन मुस्करा रही थी.. कि मोहल्ले मे ही सैटिंग हो गयी, और वर्मा जी, वो क्या करते बेचारे, बउवा को हाथ पकड़, या कहो सहारा देकर अपने घर की ओर प्रस्थान कर गये..... प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि बउवा और पहलवान की बीबी एक दूसरे को कनखियो से देखे जा रहे थे. और वानर सेना? आप क्या समझते है, हमे लोग पिटने के लिये मोहल्ले मे रहते....हम भी निकल लिये पतली गली से............हमारा बदला तो पूरा हो ही चुका था.
Tuesday, November 30, 2004
लालू पासवान की तू तू मै मै
अब लीजिये जनाब फिर से तू तू मै मै चालू हो गयी, इस बार अपने रामबिलास पासवान और लालू यादव है आमने सामने. लालू यादव जो पहले से ही पासवान से चिढे बैठे थे , और उनकी पार्टी को गुन्डो की पार्टी बताते थे, ने अब नया शगूफा छोड़ा है, कि पासवान ने क्रेन खरीद मे घोटाला किया है वो भी पूरे पूरे आठ अरब रूपये का......राम राम लालू जी ये? पासवान क्या आपसे भी आगे निकल गये क्या? ये तो बहुत सोचने वाली बात है. अरे भाई मिल बांट के खाओ, कौन पूछने वाला है आगे पीछे.तभी तो सारे बिहारी नेता रेलवे मिनिस्टर बनने की फिराक मे रहते है, बहुत मलाईदार मंत्रालय है भाई.
पासवान का जवाब बहुत ही लाजिकल है, पासवान कहते है कि जब तक पप्पू यादव लालू के साथ थे तब वो गुन्डे नही थे, पासवान के साथ आते ही गुन्डे कैसे हो गये. और चारा चोर लालू, दूसरो पर कीचड़ ना उछाले, और फिर चुनौती देते है कि अगर घोटाला साबित हो जाये तो राजनीति छोड़ देंगे, वगैरहा वगैरहा.
हमने अपने राजनीतिक एक्सपर्ट मिर्जा साहब से इस बारे मे राय जानना चाही, मिर्जा बोले, देखो बरखुरदार लालू तो वैसे ही खार खाये बैठा है, बिहार मे पासवान को "बिहार बचाओ" रैली को सफलता जो मिल गयी है.दरअसल सारा खेल मुसलमान वोट बैंक का है, पासवान और लालू दोनो MY यानि मुसलमान और यादव वोट बैंक का खेल खेलते है, अगर मुसलमान वोट बैंक हाथ से खिसक गया तो लालू को बिहार की सत्ता छोड़नी पड़ेगी और फिर लालू का क्या हल होगा, ये तो जग जाहिर है, इसलिये वो पासवान के हर वार का जवाब देने से नही चूक रहे है.उधर पासवान भी जानते और समझते है कि अकेले वो लालू का कुछ भी नही बिगाड़ सकते जब तक लालू विरोधी मोर्चा नही बनता तब तो लालू बिहार मे विजयी रहेंगे. दोनो लोग लगे पड़े है जबानी जमाखर्च करने मे.
पासवान की दिक्कतें है कि अगर नीतिश कुमार और बीजेपी से हाथ मिलाते है तो मुसलमान वोट लालू के पाले मे चले जायेंगे, और नही करते है तो अकेले तो उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जायेंगी और मुख्यमंत्री बनने का सपना धरा का धरा रह जायेगा. इसलिये कांग्रेस को पटाने की कोशिशें जारी है. उधर लालू ये सब बहुत अच्छी तरह से जानते है, और वो जान बूझ कर पासवान को उकसा रहे है, इसे कहते है चने के झाड़ पर चढाना, ताकि पासवान अपने आपको बिहार मे बड़ी ताकत समझें और किसी से गठबन्धन ना करे, इसी मे लालू का फायदा है. सो चालू है गाली गलौच का सिलसिला...... आप भी
इन्जवाय कीजिये, हम तो कर ही रहे है.
पासवान का जवाब बहुत ही लाजिकल है, पासवान कहते है कि जब तक पप्पू यादव लालू के साथ थे तब वो गुन्डे नही थे, पासवान के साथ आते ही गुन्डे कैसे हो गये. और चारा चोर लालू, दूसरो पर कीचड़ ना उछाले, और फिर चुनौती देते है कि अगर घोटाला साबित हो जाये तो राजनीति छोड़ देंगे, वगैरहा वगैरहा.
हमने अपने राजनीतिक एक्सपर्ट मिर्जा साहब से इस बारे मे राय जानना चाही, मिर्जा बोले, देखो बरखुरदार लालू तो वैसे ही खार खाये बैठा है, बिहार मे पासवान को "बिहार बचाओ" रैली को सफलता जो मिल गयी है.दरअसल सारा खेल मुसलमान वोट बैंक का है, पासवान और लालू दोनो MY यानि मुसलमान और यादव वोट बैंक का खेल खेलते है, अगर मुसलमान वोट बैंक हाथ से खिसक गया तो लालू को बिहार की सत्ता छोड़नी पड़ेगी और फिर लालू का क्या हल होगा, ये तो जग जाहिर है, इसलिये वो पासवान के हर वार का जवाब देने से नही चूक रहे है.उधर पासवान भी जानते और समझते है कि अकेले वो लालू का कुछ भी नही बिगाड़ सकते जब तक लालू विरोधी मोर्चा नही बनता तब तो लालू बिहार मे विजयी रहेंगे. दोनो लोग लगे पड़े है जबानी जमाखर्च करने मे.
पासवान की दिक्कतें है कि अगर नीतिश कुमार और बीजेपी से हाथ मिलाते है तो मुसलमान वोट लालू के पाले मे चले जायेंगे, और नही करते है तो अकेले तो उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जायेंगी और मुख्यमंत्री बनने का सपना धरा का धरा रह जायेगा. इसलिये कांग्रेस को पटाने की कोशिशें जारी है. उधर लालू ये सब बहुत अच्छी तरह से जानते है, और वो जान बूझ कर पासवान को उकसा रहे है, इसे कहते है चने के झाड़ पर चढाना, ताकि पासवान अपने आपको बिहार मे बड़ी ताकत समझें और किसी से गठबन्धन ना करे, इसी मे लालू का फायदा है. सो चालू है गाली गलौच का सिलसिला...... आप भी
इन्जवाय कीजिये, हम तो कर ही रहे है.
भारतीय चैनेल्स पर विज्ञापनो का संसार
क्या कभी आपने टीवी चैनल्स पर दिखाये जाने वाले प्रोग्राम्स के बीच मे दिखाये जाने वाले विज्ञापनो (TV Commercials) पर गौर किया है? यहाँ पर मै यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि हमारे यहाँ कुवैत मे सारे चैनल नही दिखाये जाते, सो मेरी जानकारी मे जितने विज्ञापन है, उन्ही मे से अपनी पसन्द बता रहा हूँ.
अभी रिसेन्टली मास्टरकार्ड का एक नया टीवी विज्ञापन देखा, जो पूरे यूरोप और मिडिलईस्ट मे दिखाया जा रहा है, काफी अच्छा है.इस विज्ञापन मे एक पेटू पति को उसकी पत्नी डाइट फूड पर रखती है, पति बहुत दूखी मन से खाना खाता है.पति जब शापिंग से लौट रहा होता है तो कार मे बैठा ढेर सारा फास्ट फूड खा रहा होता है,और घर लौटने पर फिर वही डाइट फूड बड़े शौंक से खाता है, फिर बताया गया है कि मास्टरकार्ड से सब कुछ खरीदा जा सकता है. लेकिन जब मै इन्डियन चैनल्स पर पर हिन्दी के विज्ञापन(TV Commercials) देखता हूँ तो लगता है कि दुनिया के सबसे अच्छे विज्ञापन भारत मे ही बनते है, उदाहरण के लिये मास्टरकार्ड का नया हिन्दी विज्ञापन देखा. मास्टरकार्ड के टीवी कमर्शियलस पूरी दुनिया मे बनते है.लेकिन मेरे विचार से आज तक का सबसे अच्छा मास्टरकार्ड का विज्ञापन भारत मे ही बना है.
इसके अलावा आइसीआइसीआइ बैक का "हम है ना" वाला भी बहुत अच्छा है, इसके अतिरिक्त मान्टे कार्लो कार्डोगन्स और रेमन्डस "द कम्पलीट मैन" के विज्ञापन तो सदाबहार है ही.कभी कभी कुछ और भी अच्छे लगते है, जैसे एशियन पेन्टस, दूसरी पेन्टस कम्पनीज के विज्ञापन, वीआईपी फ्रेन्ची,टाइटन, डायमन्ड ज्वैलरी वाले वगैरहा वगैरहा. नापसन्द विज्ञापनों मे पान मसाले,गुटके वाले, चाय वाले, और जी टीवी पर दिखाये जाने वाले तकनीकी रूप से कुछ कमजोर विज्ञापन जैसे बनियान,बाम वगैरहा वगैरहा.
इसके अलावा यूरोप मे भी काफी मे अच्छे विज्ञापन बनते है,मुझे पसन्द है फ्रान्स के विज्ञापन,फ्रांस के विज्ञापनो मे प्रिजेन्टेशन पर ज्यादा जोर दिया जाता है और दर्शको को सरप्राइज करने का माद्दा ज्यादा होता है, एक और बात वहाँ पर कोई भी विज्ञापन ज्यादा दिन नही चलता, कम्पनियाँ विज्ञापन जल्दी जल्दी बदलती रहती है.इसके अलावा मेरे को कुछ अलग तरह के विज्ञापन पसन्द है जैसे इंग्लेण्ड मे NGOs वाले, दान मांगने वाले वगैरहा वगैरहा. कुछ विज्ञापन देख कर लोग रो पड़ते है,और तुरन्त अपना फोन उठाते है मनी ट्रान्सफर के लिये जबकि विज्ञापन या तो अफ्रीका या फिर एशिया के लोगो की स्थिति के ऊपर होता है, और दान की विनती की गयी होती है. यूके मे लोग काफी लोग, विज्ञापन देख कर दान देते है.
बकवास विज्ञापनो मे अभी तक मैने कुछ पाकिस्तानी विज्ञापन देखे है, जो पूरी तरह से बकवास तो नही कहे जा सकते, लेकिन तकनीकी रूप से इतने कमजोर होते है, कि बात दर्शको तक ठीक तरीके से नही पहुँच पाती.
प्रोडक्ट बेचने वाली कम्पनियों के विज्ञापनो का उद्देश्य होता है कि दर्शक पहली बार विज्ञापन देखकर नोटिस ले, दूसरी बारे देखे तो मुस्कराये और तीसरी चौथी बार देखे तो प्रोडक्ट के बारे मे सोंचे और लगातार देखे तो खरीदने के लिये ना सिर्फ मन बनाये, बल्कि बजट भी बनाना शुरू कर दे.लेकिन सारे विज्ञापन ऐसे नही होते, कोई कोई विज्ञापन नकारात्मक सफलता हासिल करता है, जैसे ओनिडा का. ओनिडा वालों ने शुरू से ही नकारात्मक विज्ञापन बनाये जो काफी सफल रहे और यह ट्रेन्ड आज तक चालू है.
एक पहलू और भी है, कभी कभी वही विज्ञापन बार बार देखकर गुस्सा आता है और चैनेल बदलने या आवाज म्यूट करने की इच्छा होती है. लेकिन हमारे यहाँ तो और मुसीबत है, बेगम साहिबा को प्रोग्राम देखना होता है तो बेटी सिर्फ विज्ञापनो का इन्तजार करती है.
मैने तो अपने पसन्द के विज्ञापन बता दिये, आपकी पसन्द के विज्ञापन कौन से है?
अभी रिसेन्टली मास्टरकार्ड का एक नया टीवी विज्ञापन देखा, जो पूरे यूरोप और मिडिलईस्ट मे दिखाया जा रहा है, काफी अच्छा है.इस विज्ञापन मे एक पेटू पति को उसकी पत्नी डाइट फूड पर रखती है, पति बहुत दूखी मन से खाना खाता है.पति जब शापिंग से लौट रहा होता है तो कार मे बैठा ढेर सारा फास्ट फूड खा रहा होता है,और घर लौटने पर फिर वही डाइट फूड बड़े शौंक से खाता है, फिर बताया गया है कि मास्टरकार्ड से सब कुछ खरीदा जा सकता है. लेकिन जब मै इन्डियन चैनल्स पर पर हिन्दी के विज्ञापन(TV Commercials) देखता हूँ तो लगता है कि दुनिया के सबसे अच्छे विज्ञापन भारत मे ही बनते है, उदाहरण के लिये मास्टरकार्ड का नया हिन्दी विज्ञापन देखा. मास्टरकार्ड के टीवी कमर्शियलस पूरी दुनिया मे बनते है.लेकिन मेरे विचार से आज तक का सबसे अच्छा मास्टरकार्ड का विज्ञापन भारत मे ही बना है.
इसके अलावा आइसीआइसीआइ बैक का "हम है ना" वाला भी बहुत अच्छा है, इसके अतिरिक्त मान्टे कार्लो कार्डोगन्स और रेमन्डस "द कम्पलीट मैन" के विज्ञापन तो सदाबहार है ही.कभी कभी कुछ और भी अच्छे लगते है, जैसे एशियन पेन्टस, दूसरी पेन्टस कम्पनीज के विज्ञापन, वीआईपी फ्रेन्ची,टाइटन, डायमन्ड ज्वैलरी वाले वगैरहा वगैरहा. नापसन्द विज्ञापनों मे पान मसाले,गुटके वाले, चाय वाले, और जी टीवी पर दिखाये जाने वाले तकनीकी रूप से कुछ कमजोर विज्ञापन जैसे बनियान,बाम वगैरहा वगैरहा.
इसके अलावा यूरोप मे भी काफी मे अच्छे विज्ञापन बनते है,मुझे पसन्द है फ्रान्स के विज्ञापन,फ्रांस के विज्ञापनो मे प्रिजेन्टेशन पर ज्यादा जोर दिया जाता है और दर्शको को सरप्राइज करने का माद्दा ज्यादा होता है, एक और बात वहाँ पर कोई भी विज्ञापन ज्यादा दिन नही चलता, कम्पनियाँ विज्ञापन जल्दी जल्दी बदलती रहती है.इसके अलावा मेरे को कुछ अलग तरह के विज्ञापन पसन्द है जैसे इंग्लेण्ड मे NGOs वाले, दान मांगने वाले वगैरहा वगैरहा. कुछ विज्ञापन देख कर लोग रो पड़ते है,और तुरन्त अपना फोन उठाते है मनी ट्रान्सफर के लिये जबकि विज्ञापन या तो अफ्रीका या फिर एशिया के लोगो की स्थिति के ऊपर होता है, और दान की विनती की गयी होती है. यूके मे लोग काफी लोग, विज्ञापन देख कर दान देते है.
बकवास विज्ञापनो मे अभी तक मैने कुछ पाकिस्तानी विज्ञापन देखे है, जो पूरी तरह से बकवास तो नही कहे जा सकते, लेकिन तकनीकी रूप से इतने कमजोर होते है, कि बात दर्शको तक ठीक तरीके से नही पहुँच पाती.
प्रोडक्ट बेचने वाली कम्पनियों के विज्ञापनो का उद्देश्य होता है कि दर्शक पहली बार विज्ञापन देखकर नोटिस ले, दूसरी बारे देखे तो मुस्कराये और तीसरी चौथी बार देखे तो प्रोडक्ट के बारे मे सोंचे और लगातार देखे तो खरीदने के लिये ना सिर्फ मन बनाये, बल्कि बजट भी बनाना शुरू कर दे.लेकिन सारे विज्ञापन ऐसे नही होते, कोई कोई विज्ञापन नकारात्मक सफलता हासिल करता है, जैसे ओनिडा का. ओनिडा वालों ने शुरू से ही नकारात्मक विज्ञापन बनाये जो काफी सफल रहे और यह ट्रेन्ड आज तक चालू है.
एक पहलू और भी है, कभी कभी वही विज्ञापन बार बार देखकर गुस्सा आता है और चैनेल बदलने या आवाज म्यूट करने की इच्छा होती है. लेकिन हमारे यहाँ तो और मुसीबत है, बेगम साहिबा को प्रोग्राम देखना होता है तो बेटी सिर्फ विज्ञापनो का इन्तजार करती है.
मैने तो अपने पसन्द के विज्ञापन बता दिये, आपकी पसन्द के विज्ञापन कौन से है?
Saturday, November 27, 2004
फोटो ब्लाग का शुभारम्भ
सभी पाठको को मै अपने फोटो ब्लाग के बारे मे बताना चाहता हूँ.
इस पर जाने के लिये यहाँ पर क्लिक करें.
मेरा फोटो ब्लाग अतुल अरोरा जी और पंकज नरूला जी के सहयोग से ही सामने आ पाया. आप दोनो साथियों का हार्दिक धन्यवाद.
अभी यह फोटो ब्लाग अपने बाल्यकाल मे है, आप सभी साथियो के सूझाव और आलोचनायें सादर आमंत्रित है.
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मेरा फोटो ब्लाग अतुल अरोरा जी और पंकज नरूला जी के सहयोग से ही सामने आ पाया. आप दोनो साथियों का हार्दिक धन्यवाद.
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Thursday, November 25, 2004
ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व
अब भइया जब बात ब्लाग से सम्बंधित टिप्पणी की हो रही है, तो हमने भी हमऊ भी कुछ लिखे
वैसे तो हमारे हिन्दी ब्लाग जगत मे टिप्पणी करने वालो ने इस सब्जेक्ट पर पीएचडी कर रखी है, एक से एक धाकड़ टिप्पणी विशेषज्ञ है हमारे यहाँ. कईयो को तो लोगो ने सलाह दे रखी है, ब्लाग लिखना छोड़कर सिर्फ टिप्पणी ही लिखा करें.ऐसे महारथियो के सामने हमारे विचार और टिप्पणियां एकदम बौनी है, फिर भी जो हमने अपनी नजर से समझा सो यहाँ आपके साथ शेयर कर रहे है. और एक विनम्र निवेदन इस टिप्पणी एनालिसिस को मस्ती मे लिया जाये, कौनो इशू ना बनाया जाय.
टिप्पणी का बहुत महत्व है, ब्लाग लिखने मे,बकौल शुक्लाजी टिप्पणी के बिना ब्लाग तो उजड़ी मांग की तरह होता है, जिस ब्लाग मे जितनी ज्यादा टिप्पणिया समझो उसके उतने सुहाग.
टिप्पणिया कई तरह की होती है, कुछ उदाहरण आपके सामने हैः
जैसेः आपका ब्लाग पढा, अच्छा लगा लिखते रहो.. आगे भी इन्तजार रहेगा.....
तात्पर्यःफालतू का टाइम वेस्ट था, पूरा पढने की इच्छा नही हुई,लिखते रहो, कभी तो अच्छा लिखोगे, फिर देखेंगे.
थोड़ी तारीफः आपका ब्लाग पढा, बहुत मजा आया, हंसते हंसते बेहाल हो गये, वगैरहा वगैरहाः
तात्पर्यः अब जाकर ठीक लिख पाये हो,थोड़ा और इम्प्रूव करो, फिर भी ठीक है, थोड़ा पढा है, समय मिला तो बाकी का फिर पढेंगे.
शिकायती तारीफः आपका ब्लाग पढा, अच्छा लगा, मजा आया... पिछले ब्लाग मे छुट्टन मिंया की दावत वाला किस्सा अच्छा था, कहाँ है आजकल छुट्टन मिंया?
तात्पर्यः अबे ये सब क्या उलजलूल लिख रहे हो, मजा नही आ रहा, जैसा पिछला ब्लाग लिखा था, वैसा लिखो, अगर अगले ब्लाग मे छुट्टन के बारे मे नही लिखा तो मै तो नही पढने वाला, बाकी तुम जानो.
थोड़ी आलोचना थोड़ी तारीफः आपका ब्लाग पढा, आपने अपने ब्लाग मे सूरज को पश्चिम से उगते हुए बताया है, यह सरासर गलत है, लेकिन आपका सूरज के उगने का वर्णन बहुत सही और सटीक था.
तात्पर्यः मैने पूरा ब्लाग पढा, अजीब अहमक आदमी हो, पूरे फन्डे क्लियर नही है, और ब्लाग लिखने बैठ गये. शुरू कंही से करते हो, खत्म कंही और जाकर होता है, कोई सिर पैर ही नही है, लेकिन फिर भी एक बात है, लिखते भले ही बकवास हो लेकिन शैली अच्छी है.
ज्यादा आलोचनाः आपके ब्लाग मे सूरज को पश्चिम से उगता दिखाया गया है, जो एकदम गलत है, बकवास है, वगैरहा.......
जोशपूर्ण आलोचनाःआपने सूरज को पश्चिम से उगता दिखाया है, आप अहमक है, कोई आपका ब्लाग नही पढना चाहता है, आप लिखते ही क्यों है? क्या जरूरत है लोगो का टाइम वेस्ट करने की, खुद तो फालतू है, दूसरो को भी समझते है. वगैरहा वगैरहा.
तात्पर्यः बात दिल को चुभ गयी, या तो ज्यादा सच्चा लिख दिये हो, या फिर अकल के अन्धे हो.
क्रोधपूर्ण आलोचनाः आपने सूरज...पश्चिम..... आपकी हिम्मत कैसे हुई यह सब लिखने की, कुछ शर्म लिहाज... उमर, बच्चो का ख्याल .......वगैरहा वगैरहा
घुमावदार तारीफ और आलोचनाः जिसमे दोहो और शेरो शायरी से तारीफ की गयी है.
तात्पर्यः सामने सामने तो तारीफ और शेरो शायरी मे शिकायत, मतलब है,अगर तारीफ करने वाला बात बात मे शेर और दोहे मार रहा है तो वह यह जताने की चेष्टा कर रहा है, जो बात वह खुद नही कहना चाहता है, उसको दोहो और शेरो शायरी से समझो.
ईष्यापूर्ण तारीफः मैने आपके ब्लाग की तारीफ, उस ब्लाग पर पढी थी, आपकी कविता का अनुवाद पढा था, बहुत अच्छा लगा, अच्छा लिखते है, लिखते रहो.
तात्पर्यः इतना वाहियात लिखते हो, फिर भी लोग तारीफ कैसे करते है?, यहाँ तो हम लिखते लिखते थक जाते है कोई घास नही डालता. लड़की है इसलिये लोग इसके ब्लाग पर टूट पड़ते है,लोगो की पसन्द का भी कुछ पता नही चलता.
तारीफ का इन्वेस्टमेंट
इन्वेस्टमेंट #1 : आपका ब्लाग अच्छा लगा, कभी हमारे विचार भी देखिये हमारे ब्लाग पर.
तात्पर्यः मै तुम्हारे पन्ने पर आया, अब तुम भी आओ.
इन्वेस्टमेंट #2 : आपका ब्लाग पढा, अच्छा लगा, सूरज के उगने के संदर्भ मे आपके और मेरे विचार मेल खाते है, जिसे मैने अपने ब्लाग link here पर लिखा है.
तात्पर्यः देखो भइया मैने तुम्हारा ब्लाग पढकर अपना फर्ज निभाया, अब तुम भी मेरा ब्लाग पढ डालो, और हाँ मेने इस सब्जेक्ट पर तुमसे अच्छा लिखा है. ना मानो तो खुद पढकर देख लो.
तो जनाब सच्ची तारीफ क्या होती है. अभी खोज जारी है.
वैसे अब तक की रिसर्च से मालूम पड़ा है कि सच्ची तारीफ वो होती है जो दिल से निकली हो, जिसमे शब्दो का ज्यादा घालमेल ना हो, तारीफ करने वाले ने ब्लाग पूरा पढा हो, भले ही समझा हो या नही, यह अलग बात है,लेकिन पूरा पढा जरूर हो. और उसने जितना समझा हो उसकी तारीफ के बारे मे लिखा हो.
और एक आखिरी बात, तारीफ पाकर आप फूल कर कुप्पा ना हो जाय, तारीफ अस्त्र भी है.ऐसा ना हो की आप तारीफ पाकर दो तीन हफ्ते लिखना ही बन्द कर दे, या फिर ऊलजलूल लिखने लगें. जैसे मै लिख रहा हूँ..........और वैसे भी ब्लाग तो दिल की भड़ास है, आपने लिख कर अपना काम तो कर दिया, अब लोग पढे या ना पढे. फिर घूम फिरकर बात वंही पर आ जाती है,क्या करे दिल है कि मानता नही वैसे भी बिना टिप्पणी के तो ब्लाग उजड़ी मांग..........................
वैसे तो हमारे हिन्दी ब्लाग जगत मे टिप्पणी करने वालो ने इस सब्जेक्ट पर पीएचडी कर रखी है, एक से एक धाकड़ टिप्पणी विशेषज्ञ है हमारे यहाँ. कईयो को तो लोगो ने सलाह दे रखी है, ब्लाग लिखना छोड़कर सिर्फ टिप्पणी ही लिखा करें.ऐसे महारथियो के सामने हमारे विचार और टिप्पणियां एकदम बौनी है, फिर भी जो हमने अपनी नजर से समझा सो यहाँ आपके साथ शेयर कर रहे है. और एक विनम्र निवेदन इस टिप्पणी एनालिसिस को मस्ती मे लिया जाये, कौनो इशू ना बनाया जाय.
टिप्पणी का बहुत महत्व है, ब्लाग लिखने मे,बकौल शुक्लाजी टिप्पणी के बिना ब्लाग तो उजड़ी मांग की तरह होता है, जिस ब्लाग मे जितनी ज्यादा टिप्पणिया समझो उसके उतने सुहाग.
टिप्पणिया कई तरह की होती है, कुछ उदाहरण आपके सामने हैः
जैसेः आपका ब्लाग पढा, अच्छा लगा लिखते रहो.. आगे भी इन्तजार रहेगा.....
तात्पर्यःफालतू का टाइम वेस्ट था, पूरा पढने की इच्छा नही हुई,लिखते रहो, कभी तो अच्छा लिखोगे, फिर देखेंगे.
थोड़ी तारीफः आपका ब्लाग पढा, बहुत मजा आया, हंसते हंसते बेहाल हो गये, वगैरहा वगैरहाः
तात्पर्यः अब जाकर ठीक लिख पाये हो,थोड़ा और इम्प्रूव करो, फिर भी ठीक है, थोड़ा पढा है, समय मिला तो बाकी का फिर पढेंगे.
शिकायती तारीफः आपका ब्लाग पढा, अच्छा लगा, मजा आया... पिछले ब्लाग मे छुट्टन मिंया की दावत वाला किस्सा अच्छा था, कहाँ है आजकल छुट्टन मिंया?
तात्पर्यः अबे ये सब क्या उलजलूल लिख रहे हो, मजा नही आ रहा, जैसा पिछला ब्लाग लिखा था, वैसा लिखो, अगर अगले ब्लाग मे छुट्टन के बारे मे नही लिखा तो मै तो नही पढने वाला, बाकी तुम जानो.
थोड़ी आलोचना थोड़ी तारीफः आपका ब्लाग पढा, आपने अपने ब्लाग मे सूरज को पश्चिम से उगते हुए बताया है, यह सरासर गलत है, लेकिन आपका सूरज के उगने का वर्णन बहुत सही और सटीक था.
तात्पर्यः मैने पूरा ब्लाग पढा, अजीब अहमक आदमी हो, पूरे फन्डे क्लियर नही है, और ब्लाग लिखने बैठ गये. शुरू कंही से करते हो, खत्म कंही और जाकर होता है, कोई सिर पैर ही नही है, लेकिन फिर भी एक बात है, लिखते भले ही बकवास हो लेकिन शैली अच्छी है.
ज्यादा आलोचनाः आपके ब्लाग मे सूरज को पश्चिम से उगता दिखाया गया है, जो एकदम गलत है, बकवास है, वगैरहा.......
जोशपूर्ण आलोचनाःआपने सूरज को पश्चिम से उगता दिखाया है, आप अहमक है, कोई आपका ब्लाग नही पढना चाहता है, आप लिखते ही क्यों है? क्या जरूरत है लोगो का टाइम वेस्ट करने की, खुद तो फालतू है, दूसरो को भी समझते है. वगैरहा वगैरहा.
तात्पर्यः बात दिल को चुभ गयी, या तो ज्यादा सच्चा लिख दिये हो, या फिर अकल के अन्धे हो.
क्रोधपूर्ण आलोचनाः आपने सूरज...पश्चिम..... आपकी हिम्मत कैसे हुई यह सब लिखने की, कुछ शर्म लिहाज... उमर, बच्चो का ख्याल .......वगैरहा वगैरहा
घुमावदार तारीफ और आलोचनाः जिसमे दोहो और शेरो शायरी से तारीफ की गयी है.
तात्पर्यः सामने सामने तो तारीफ और शेरो शायरी मे शिकायत, मतलब है,अगर तारीफ करने वाला बात बात मे शेर और दोहे मार रहा है तो वह यह जताने की चेष्टा कर रहा है, जो बात वह खुद नही कहना चाहता है, उसको दोहो और शेरो शायरी से समझो.
ईष्यापूर्ण तारीफः मैने आपके ब्लाग की तारीफ, उस ब्लाग पर पढी थी, आपकी कविता का अनुवाद पढा था, बहुत अच्छा लगा, अच्छा लिखते है, लिखते रहो.
तात्पर्यः इतना वाहियात लिखते हो, फिर भी लोग तारीफ कैसे करते है?, यहाँ तो हम लिखते लिखते थक जाते है कोई घास नही डालता. लड़की है इसलिये लोग इसके ब्लाग पर टूट पड़ते है,लोगो की पसन्द का भी कुछ पता नही चलता.
तारीफ का इन्वेस्टमेंट
इन्वेस्टमेंट #1 : आपका ब्लाग अच्छा लगा, कभी हमारे विचार भी देखिये हमारे ब्लाग पर.
तात्पर्यः मै तुम्हारे पन्ने पर आया, अब तुम भी आओ.
इन्वेस्टमेंट #2 : आपका ब्लाग पढा, अच्छा लगा, सूरज के उगने के संदर्भ मे आपके और मेरे विचार मेल खाते है, जिसे मैने अपने ब्लाग link here पर लिखा है.
तात्पर्यः देखो भइया मैने तुम्हारा ब्लाग पढकर अपना फर्ज निभाया, अब तुम भी मेरा ब्लाग पढ डालो, और हाँ मेने इस सब्जेक्ट पर तुमसे अच्छा लिखा है. ना मानो तो खुद पढकर देख लो.
तो जनाब सच्ची तारीफ क्या होती है. अभी खोज जारी है.
वैसे अब तक की रिसर्च से मालूम पड़ा है कि सच्ची तारीफ वो होती है जो दिल से निकली हो, जिसमे शब्दो का ज्यादा घालमेल ना हो, तारीफ करने वाले ने ब्लाग पूरा पढा हो, भले ही समझा हो या नही, यह अलग बात है,लेकिन पूरा पढा जरूर हो. और उसने जितना समझा हो उसकी तारीफ के बारे मे लिखा हो.
और एक आखिरी बात, तारीफ पाकर आप फूल कर कुप्पा ना हो जाय, तारीफ अस्त्र भी है.ऐसा ना हो की आप तारीफ पाकर दो तीन हफ्ते लिखना ही बन्द कर दे, या फिर ऊलजलूल लिखने लगें. जैसे मै लिख रहा हूँ..........और वैसे भी ब्लाग तो दिल की भड़ास है, आपने लिख कर अपना काम तो कर दिया, अब लोग पढे या ना पढे. फिर घूम फिरकर बात वंही पर आ जाती है,क्या करे दिल है कि मानता नही वैसे भी बिना टिप्पणी के तो ब्लाग उजड़ी मांग..........................
Wednesday, November 24, 2004
डैमेज थैरेपी
क्या आपको काम की ज्यादा टेन्शन है?
क्या आपको आपका बास बहुत परेशान करता है ?
क्या आप किसी और घरेलू समस्या से परेशान है?
ऐसे कई सवाल हो सकते है, लेकिन इनका नया और निराला जवाब है डैमेज थैरेपी यानि तोड़फोड़ कीजिये और अपने तनाव से मुक्ति पाइये. मै कोई मजाक नही कर रहा हूँ, आप यहाँ खुद ही पढ लीजिये.
यह थैरेपी स्पेन मे पापुलर है, स्पेन में एक कबाड़ख़ाने ने लोगों को खुली छूट दी है कि वे जो चाहें तोड़ें-फोडें. आप कार, कंप्यूटर, फ़ोन या टेलीविज़न जो चाहें तोड़ सकते हैं, बस आपको अपनी जेब थोड़ी सी ढीली करनी होगी लगभग ढाई हजार रूपये तक. इसके बदले मे कबाड़खाने वाले आपको हथौड़ा,चश्मा और दस्ताने उपलब्ध करवायेंगे और बैकग्राउन्ड मे बजेगा राक म्यूजिक. आप को २ घन्टे की पूरी छूट है कि आप कबाड़खाने मे रखा कोई भी सामान तोड़ सकते है.
सबसे मजेदार बात यह है कि यहाँ पर आने वाले ज्यादातर लोग अपने साथ अपने बास का फोटोग्राफ लेकर आते है और उस फोटो को सामानो के ऊपर रखकर खूब मार कुटाई करते है.कबाड़खाने के प्रबन्धको का कहना है कि लोग जाते समय बहुत रिलेक्स और तनावमुक्त महसूस करते है.
एक महिला का कहना है कि उसने कबाड़खाने मे जाकर कार के उन हिस्सो को तोड़ा जो उस महिला की कार मे रोजाना दिक्कत दे रहे थे, सामान तोड़ने के बाद महिला ने अपने को तनावमुक्त महसूस किया. लगभग ऐसी ही तनावमुक्त करने की थैरेपी जापान मे भी उपलब्ध है.
हमने मिर्जा साहब से इस बारे मे प्रतिक्रिया चाही, और जानना चाहा कि भारत मे इस थैरिपी का क्या स्कोप है,मिर्जा बोले भारत मे यह थैरेपी तभी पापुलर होगी जब कबाड़खाने मे कबाड़ की जगह राजनेताओ के बुत रखे जायेंगे, क्योंकि सबसे ज्यादा लोग इन सबसे बहुत पीड़ित है. भारत मे लोग
जब अपने बास से पीड़ित होते है तो अपना गुस्सा घर जाकर पत्नी और बच्चो पर निकाल लेते है. अब गुस्सा निकालने के लिये भी पैसे देने पड़े तो सौदा जरा मंहगा है, फिर भी नयी नयी चीज है, थोड़ा टाईम लगेगा चलने मे, वैसे सारा मामला तो भेड़-चाल का है.
तो फिर क्या आप तैयार है? अपने बास का फोटो लेकर, और मेरे ख्याल से भारत मे ऐसे माहौल मे बैकग्राउन्ड मे यह गाना बजेगाः
आज ना छोड़ूंगा तुझे, दन दना दन,
तूने क्या समझा है मुझे दन दना दन......
आपका क्या कहना है इस बारे मे?
क्या आपको आपका बास बहुत परेशान करता है ?
क्या आप किसी और घरेलू समस्या से परेशान है?
ऐसे कई सवाल हो सकते है, लेकिन इनका नया और निराला जवाब है डैमेज थैरेपी यानि तोड़फोड़ कीजिये और अपने तनाव से मुक्ति पाइये. मै कोई मजाक नही कर रहा हूँ, आप यहाँ खुद ही पढ लीजिये.
यह थैरेपी स्पेन मे पापुलर है, स्पेन में एक कबाड़ख़ाने ने लोगों को खुली छूट दी है कि वे जो चाहें तोड़ें-फोडें. आप कार, कंप्यूटर, फ़ोन या टेलीविज़न जो चाहें तोड़ सकते हैं, बस आपको अपनी जेब थोड़ी सी ढीली करनी होगी लगभग ढाई हजार रूपये तक. इसके बदले मे कबाड़खाने वाले आपको हथौड़ा,चश्मा और दस्ताने उपलब्ध करवायेंगे और बैकग्राउन्ड मे बजेगा राक म्यूजिक. आप को २ घन्टे की पूरी छूट है कि आप कबाड़खाने मे रखा कोई भी सामान तोड़ सकते है.
सबसे मजेदार बात यह है कि यहाँ पर आने वाले ज्यादातर लोग अपने साथ अपने बास का फोटोग्राफ लेकर आते है और उस फोटो को सामानो के ऊपर रखकर खूब मार कुटाई करते है.कबाड़खाने के प्रबन्धको का कहना है कि लोग जाते समय बहुत रिलेक्स और तनावमुक्त महसूस करते है.
एक महिला का कहना है कि उसने कबाड़खाने मे जाकर कार के उन हिस्सो को तोड़ा जो उस महिला की कार मे रोजाना दिक्कत दे रहे थे, सामान तोड़ने के बाद महिला ने अपने को तनावमुक्त महसूस किया. लगभग ऐसी ही तनावमुक्त करने की थैरेपी जापान मे भी उपलब्ध है.
हमने मिर्जा साहब से इस बारे मे प्रतिक्रिया चाही, और जानना चाहा कि भारत मे इस थैरिपी का क्या स्कोप है,मिर्जा बोले भारत मे यह थैरेपी तभी पापुलर होगी जब कबाड़खाने मे कबाड़ की जगह राजनेताओ के बुत रखे जायेंगे, क्योंकि सबसे ज्यादा लोग इन सबसे बहुत पीड़ित है. भारत मे लोग
जब अपने बास से पीड़ित होते है तो अपना गुस्सा घर जाकर पत्नी और बच्चो पर निकाल लेते है. अब गुस्सा निकालने के लिये भी पैसे देने पड़े तो सौदा जरा मंहगा है, फिर भी नयी नयी चीज है, थोड़ा टाईम लगेगा चलने मे, वैसे सारा मामला तो भेड़-चाल का है.
तो फिर क्या आप तैयार है? अपने बास का फोटो लेकर, और मेरे ख्याल से भारत मे ऐसे माहौल मे बैकग्राउन्ड मे यह गाना बजेगाः
आज ना छोड़ूंगा तुझे, दन दना दन,
तूने क्या समझा है मुझे दन दना दन......
आपका क्या कहना है इस बारे मे?
शायर का सामान सड़क पर
पाकिस्तान के मशहूर शायर, अहमद फराज साहब, जिन्होने एक से बढकर एक गजले लिखी है, को सरकारी मकान से बेदखल कर दिया गया है, और उनके घर का सामान सड़क पर फेंक दिया गया है. अहमद फराज साहब जो इस समय लन्दन के दौरे पर है, ने बीबीसी को बताया कि "यह भौंडे तरीके से की गयी ज्यादती है."
उधर पाकिस्तान के आवासीय मामलो के मन्त्री ने अपने इस कदम को पूरी तरह से कानूनी कार्यवाही करार दिया.
बहरहाल कुछ भी हो, किसी विश्व प्रसिद्द शायर की इस तरह से बेइज्जती नही करनी चाहिये. शायर साहब का सामान उनके एक दोस्त ने पास के एक गेस्ट हाउस मे पहुँचा दिया है.
हमने इस बारे मे मिर्जा साहब से प्रतिक्रिया पूछी तो उन्होने मुझे अहमद फराज साहब का शेर सुना दिया, आप भी सुनिये
उधर पाकिस्तान के आवासीय मामलो के मन्त्री ने अपने इस कदम को पूरी तरह से कानूनी कार्यवाही करार दिया.
बहरहाल कुछ भी हो, किसी विश्व प्रसिद्द शायर की इस तरह से बेइज्जती नही करनी चाहिये. शायर साहब का सामान उनके एक दोस्त ने पास के एक गेस्ट हाउस मे पहुँचा दिया है.
हमने इस बारे मे मिर्जा साहब से प्रतिक्रिया पूछी तो उन्होने मुझे अहमद फराज साहब का शेर सुना दिया, आप भी सुनिये
तुम भी खफा हो लोग भी बरहम है दोस्तो (बरहमःगुस्सा,नाराज)
अब हो चला है यकीं कि हम ही बुरे है दोस्तो
किस को हमारे हाल से निस्बत है क्या कहें (निस्बतःसम्बन्ध)
आंखे तो दुश्मन की भी पुरनम है दोस्तो (पुरनमःभीगी)
अब हो चला है यकीं कि हम ही बुरे है दोस्तो
किस को हमारे हाल से निस्बत है क्या कहें (निस्बतःसम्बन्ध)
आंखे तो दुश्मन की भी पुरनम है दोस्तो (पुरनमःभीगी)
Tuesday, November 23, 2004
दिल का दुखड़ा
अपने दिल के हाल सुनाने से पहले मेरे को कैफी आजमी साहब का एक शेर याद आ रहा हैः
बस इक झिझक है यही,हाल ए दिल सुनाने मे,
कि तेरा भी जिक्र आयेगा इस फसाने मे
अब का बताया जाय... बहुत दिनो से लिखने की सोच रहे थे, लेकिन क्या करे की लिखने का मूड ही नही बन पा रहा है.पाठक लोगो ने भी चोक लेनी शुरू कर दी है कि ये मिर्जा वगैरहा पर लिखने वाले, क्रिकेट अपडेट कब से लिखने लगे.अभी पिछले किये वादे ही नही निभाये हो, नयी नयी बाते लिखने लगे हो.
खैर आइये कुछ पिछले वाले वादो का जिक्र कर ले.पहला वादा था मिर्जा साहब जो स्टार न्यूज के खुलासे पर बहुत कुछ बोले थे, वो सब मिर्जा साहब के रमजान के चक्कर मे पब्लिश होने से रूक गया था.उसमे बहुत सारे अंश सम्पादित करने पड़ेंगे, अन्यथा तो यह ब्लाग मस्तराम डाइजेस्ट बन जायेगा. और देस परदेस मे मेरी बहुत पिटाई हो जायेगी. तो थोड़ा समय दे, ताकि सम्पादित करने के बाद प्रकाशित किया जा सके. दूसरा वादा था, स्वामी का इन्डियन क्रिकेट टीम के प्रति गुस्सा, मैने स्वामी का पूरा लेक्चर तो झेल लिया लेकिन उसमे कंही भी कोई नयी बात नही दिखी, इस मामले मे इतना कुछ पहले ही कहा जा चुका है, कि भारतीय टीम को और ज्यादा गालिया देना, मै उचित नही समझता, वैसे भी गालिया खाकर कौन सा वो लोग सुधर जायेंगे.
लेकिन जब से यह अनुगूँज का निबन्ध लिखने की प्रथा शुरू हुई है, तब से लिखने का मूड तभी बन पाता है, जब अनुगूँज की आखिरी तारीख की गूँज सुनायी पड़ती है. इसी कारण पिछले निबन्ध की तारीख बढवायी थी. ये तो चलो तो गनीमत है कि हम नये ब्लागरो को आखिरी तारीख तो याद रहती है, बुजुर्ग ब्लागर्स तो तारीख भी नही याद रखते, कभी इलेक्शन मे बिजी होते है तो कभी शार्टकट मारते है. जो इलेक्शन मे नही बिजी होते है, वो अन्तर्ध्यान हो जाते है, और तभी अवतरित होते है, जब उनको कोई गुरू ज्ञान मिलता है.
अब जब हमको अनुगूँज का निबन्ध लिखने का आदेश हुआ तो हम भी फटाक से टीप टाप कर निबन्ध तो लिख डाले, लेकिन समस्या थी कि पढे कौन, ये तो भला हो ब्लाग मेला वालों का, जो उन्होने आड़े समय मे मदद की, और ग्राफ को नीचे नही आने दिया, अब निबन्ध लिख लिया गया, आखिरी तारीख के पहले ब्लाग पर चिपका भी दिया गया, तो आयोजक महोदय, जिन्हे सभी के निबन्धो का निचोड़ बना कर एक उपनिबन्ध लिखना था, वो ही नदारद है, सुना है अन्तर्ध्यान हो गये है शायद आजकल कुछ कविताये पढ रहे है और अनुवाद वगैरहा मे लगे है. देखो कब तक प्रकट होते है. हमारा हाल तो उस फरियादी की तरह से है, जिसने खींच खांच कर अदालत तक तो पहुँच गया लेकिन बस तारीख पर तारीख ही मिल रही है.
इसी बीच एक मसला और हो गया, एक कन्या जिसने अंग्रेजी मे कविता लिख दी, और अपने ब्लाग पर चिपका दी, लोग बाग, सारे के सारे ठलुआ ब्लागर मुंह उठाकर सीधे उसके ब्लाग पर पहुँच गये. और लग गये तारीफ पर तारीफो के पुल बांधने, और बताने कि क्या कविता लिखी है, क्या भाव है, क्या व्याख्या है,क्या शब्द है वगैरहा वगैरहा.... कुछ उत्साही लोगो ने कविता का हिन्दी मे अनुवाद भी ठोंक दिया, और पता नही कितने लोग अन्य भाषा के अनुवाद मे लगे हुए है, फिर मसला शुरू हो गया कि अनुवाद ठीक है कि नही, सीप मे मोती, या मोती मे सीप, प्रेमी प्रेमिका या माँ बेटे का रिश्ता वगैरहा वगैरहा.....अरे भाई, इतना डीप मे हम भी नही उतरे थे, अरे भाई क्या फर्क पड़ता है, छुरा खरबूजे पर गिरे, या खरबूजा छुरे पर....हम लोग क्यो टेन्शन ले, मगर नही हमारे शुक्ला जी ने पूरा दो पन्ने का ब्लाग लिख मारा, और हिम्मत करके उस कन्या के ब्लाग पर, अपना ब्लाग देखने का निमन्त्रण पत्र भी चस्पा कर आये. अब कन्या को तारीफो से फुर्सत मिले तभी तो आलोचना वाले ब्लाग पर जायेगी, अपने शुक्ला जी समझते ही नही. वही हुआ, अगली फुर्सत मे कन्या ने टिप्पणियो की सफाई की और शुक्लाजी की आलोचना वाले निमन्त्रण पत्र को भी रद्दी की टोकरी मे डाल दिया. अब शुक्ला जी परेशान टहलते फिर रहे है.
दरअसल सारा मसला था ब्लागर का कन्या होना, अगर वही कविता हमारे जैसा कोई ठलुआ ब्लागर लिखता, तो कोई पढना तो दूर की बात है, झांकने भी नही जाता. यही सोच कर हमने भी एक आध ब्लाग किसी कन्या के नाम पर लिखने की सोची है, ताकि हमारा ब्लाग सिर्फ हमें ही ना पढना पढे.आप लोगो के दिमाग मे कोई झकास सा नाम हो तो बुझाईयेगा.अब आप भी कहेंगे कि क्या हम भी कन्या से इम्प्रेस हो गये है, तो भइया आप को एक राज की बात बता देते है कि हम इम्प्रेस तो तब होते ना जब हमने पूरी कविता पढी होती... ना हमने कविता पढी, ना इम्प्रेस होने के चक्कर मे पढे, लेकिन हाँ तारीफ तो टिप्पणी तो हमने भी लिख दी... क्यो? अरे भाई जब सब लोग तारीफ कर रहे हो और हम ना करे तो हम पिछड़ नही जायेंगे?..... सो हमने अपने आप को पिछड़ने से बचाने के लिये तारीफ तो लिख दी, यही सोच कर कि शायद कोई ज्ञानी महाज्ञानी हमारी टिप्पणी पढकर ही हमारे ब्लाग पर आ जाये... या आप कहे कि हमने एक टिप्पणी का इन्वेस्टमेन्ट किया था, अब उसका कितना फायदा हुआ, देखना बाकी है.
अब आप लोग भी चूकिये मत, टिप्पणी का इन्वेस्टमेन्ट कर डालिये, कंही देर ना हो जाय.
एक और दुखड़ा है हमारा, हमारे हिन्दी ब्लागर भाईयो के चिट्ठा समुह के हैडक्वार्टर चिट्ठा विश्व मे सारे पुराने चिट्ठाकारो के परिचय पत्र मौजूद है और कइयो के लेखो का पोस्टमार्टम करने वाला लेख मौजूद है, हम भी इस खुशफहमी मे थे कि कभी हमारा थोबड़ा भी वहाँ लटका मिलेगा या कोई बन्धु हमारे लेखो का उल्लेख कर हमारे दिन तार देगा, बहुत दिन इन्तजार करने के बाद, हमने भी अपना परिचय पत्र वहाँ के लिये रवाना कर दिया, और इसी इन्तजार मे दिन मे चार चार बार वहाँ विजिट किये.......लेकिन इतने दिन,हफ्ते,महीने गुजर गये आज तक हमारा थोबड़ा वहाँ नही दिखाई पड़ा, समझ मे नही आता, डाकिये को हमारा परिचय पसन्द आ गया और उसने पार कर दिया या फिर नये ब्लागर्स के परिचय पत्र टांगने की प्रथा ही नही है. अब ये बात तो सारे बजुर्ग ब्लागर बन्धु ही बता पायेंगे, हम अज्ञानी लोग क्या जाने इस बारे मे.
बस इक झिझक है यही,हाल ए दिल सुनाने मे,
कि तेरा भी जिक्र आयेगा इस फसाने मे
अब का बताया जाय... बहुत दिनो से लिखने की सोच रहे थे, लेकिन क्या करे की लिखने का मूड ही नही बन पा रहा है.पाठक लोगो ने भी चोक लेनी शुरू कर दी है कि ये मिर्जा वगैरहा पर लिखने वाले, क्रिकेट अपडेट कब से लिखने लगे.अभी पिछले किये वादे ही नही निभाये हो, नयी नयी बाते लिखने लगे हो.
खैर आइये कुछ पिछले वाले वादो का जिक्र कर ले.पहला वादा था मिर्जा साहब जो स्टार न्यूज के खुलासे पर बहुत कुछ बोले थे, वो सब मिर्जा साहब के रमजान के चक्कर मे पब्लिश होने से रूक गया था.उसमे बहुत सारे अंश सम्पादित करने पड़ेंगे, अन्यथा तो यह ब्लाग मस्तराम डाइजेस्ट बन जायेगा. और देस परदेस मे मेरी बहुत पिटाई हो जायेगी. तो थोड़ा समय दे, ताकि सम्पादित करने के बाद प्रकाशित किया जा सके. दूसरा वादा था, स्वामी का इन्डियन क्रिकेट टीम के प्रति गुस्सा, मैने स्वामी का पूरा लेक्चर तो झेल लिया लेकिन उसमे कंही भी कोई नयी बात नही दिखी, इस मामले मे इतना कुछ पहले ही कहा जा चुका है, कि भारतीय टीम को और ज्यादा गालिया देना, मै उचित नही समझता, वैसे भी गालिया खाकर कौन सा वो लोग सुधर जायेंगे.
लेकिन जब से यह अनुगूँज का निबन्ध लिखने की प्रथा शुरू हुई है, तब से लिखने का मूड तभी बन पाता है, जब अनुगूँज की आखिरी तारीख की गूँज सुनायी पड़ती है. इसी कारण पिछले निबन्ध की तारीख बढवायी थी. ये तो चलो तो गनीमत है कि हम नये ब्लागरो को आखिरी तारीख तो याद रहती है, बुजुर्ग ब्लागर्स तो तारीख भी नही याद रखते, कभी इलेक्शन मे बिजी होते है तो कभी शार्टकट मारते है. जो इलेक्शन मे नही बिजी होते है, वो अन्तर्ध्यान हो जाते है, और तभी अवतरित होते है, जब उनको कोई गुरू ज्ञान मिलता है.
अब जब हमको अनुगूँज का निबन्ध लिखने का आदेश हुआ तो हम भी फटाक से टीप टाप कर निबन्ध तो लिख डाले, लेकिन समस्या थी कि पढे कौन, ये तो भला हो ब्लाग मेला वालों का, जो उन्होने आड़े समय मे मदद की, और ग्राफ को नीचे नही आने दिया, अब निबन्ध लिख लिया गया, आखिरी तारीख के पहले ब्लाग पर चिपका भी दिया गया, तो आयोजक महोदय, जिन्हे सभी के निबन्धो का निचोड़ बना कर एक उपनिबन्ध लिखना था, वो ही नदारद है, सुना है अन्तर्ध्यान हो गये है शायद आजकल कुछ कविताये पढ रहे है और अनुवाद वगैरहा मे लगे है. देखो कब तक प्रकट होते है. हमारा हाल तो उस फरियादी की तरह से है, जिसने खींच खांच कर अदालत तक तो पहुँच गया लेकिन बस तारीख पर तारीख ही मिल रही है.
इसी बीच एक मसला और हो गया, एक कन्या जिसने अंग्रेजी मे कविता लिख दी, और अपने ब्लाग पर चिपका दी, लोग बाग, सारे के सारे ठलुआ ब्लागर मुंह उठाकर सीधे उसके ब्लाग पर पहुँच गये. और लग गये तारीफ पर तारीफो के पुल बांधने, और बताने कि क्या कविता लिखी है, क्या भाव है, क्या व्याख्या है,क्या शब्द है वगैरहा वगैरहा.... कुछ उत्साही लोगो ने कविता का हिन्दी मे अनुवाद भी ठोंक दिया, और पता नही कितने लोग अन्य भाषा के अनुवाद मे लगे हुए है, फिर मसला शुरू हो गया कि अनुवाद ठीक है कि नही, सीप मे मोती, या मोती मे सीप, प्रेमी प्रेमिका या माँ बेटे का रिश्ता वगैरहा वगैरहा.....अरे भाई, इतना डीप मे हम भी नही उतरे थे, अरे भाई क्या फर्क पड़ता है, छुरा खरबूजे पर गिरे, या खरबूजा छुरे पर....हम लोग क्यो टेन्शन ले, मगर नही हमारे शुक्ला जी ने पूरा दो पन्ने का ब्लाग लिख मारा, और हिम्मत करके उस कन्या के ब्लाग पर, अपना ब्लाग देखने का निमन्त्रण पत्र भी चस्पा कर आये. अब कन्या को तारीफो से फुर्सत मिले तभी तो आलोचना वाले ब्लाग पर जायेगी, अपने शुक्ला जी समझते ही नही. वही हुआ, अगली फुर्सत मे कन्या ने टिप्पणियो की सफाई की और शुक्लाजी की आलोचना वाले निमन्त्रण पत्र को भी रद्दी की टोकरी मे डाल दिया. अब शुक्ला जी परेशान टहलते फिर रहे है.
दरअसल सारा मसला था ब्लागर का कन्या होना, अगर वही कविता हमारे जैसा कोई ठलुआ ब्लागर लिखता, तो कोई पढना तो दूर की बात है, झांकने भी नही जाता. यही सोच कर हमने भी एक आध ब्लाग किसी कन्या के नाम पर लिखने की सोची है, ताकि हमारा ब्लाग सिर्फ हमें ही ना पढना पढे.आप लोगो के दिमाग मे कोई झकास सा नाम हो तो बुझाईयेगा.अब आप भी कहेंगे कि क्या हम भी कन्या से इम्प्रेस हो गये है, तो भइया आप को एक राज की बात बता देते है कि हम इम्प्रेस तो तब होते ना जब हमने पूरी कविता पढी होती... ना हमने कविता पढी, ना इम्प्रेस होने के चक्कर मे पढे, लेकिन हाँ तारीफ तो टिप्पणी तो हमने भी लिख दी... क्यो? अरे भाई जब सब लोग तारीफ कर रहे हो और हम ना करे तो हम पिछड़ नही जायेंगे?..... सो हमने अपने आप को पिछड़ने से बचाने के लिये तारीफ तो लिख दी, यही सोच कर कि शायद कोई ज्ञानी महाज्ञानी हमारी टिप्पणी पढकर ही हमारे ब्लाग पर आ जाये... या आप कहे कि हमने एक टिप्पणी का इन्वेस्टमेन्ट किया था, अब उसका कितना फायदा हुआ, देखना बाकी है.
अब आप लोग भी चूकिये मत, टिप्पणी का इन्वेस्टमेन्ट कर डालिये, कंही देर ना हो जाय.
एक और दुखड़ा है हमारा, हमारे हिन्दी ब्लागर भाईयो के चिट्ठा समुह के हैडक्वार्टर चिट्ठा विश्व मे सारे पुराने चिट्ठाकारो के परिचय पत्र मौजूद है और कइयो के लेखो का पोस्टमार्टम करने वाला लेख मौजूद है, हम भी इस खुशफहमी मे थे कि कभी हमारा थोबड़ा भी वहाँ लटका मिलेगा या कोई बन्धु हमारे लेखो का उल्लेख कर हमारे दिन तार देगा, बहुत दिन इन्तजार करने के बाद, हमने भी अपना परिचय पत्र वहाँ के लिये रवाना कर दिया, और इसी इन्तजार मे दिन मे चार चार बार वहाँ विजिट किये.......लेकिन इतने दिन,हफ्ते,महीने गुजर गये आज तक हमारा थोबड़ा वहाँ नही दिखाई पड़ा, समझ मे नही आता, डाकिये को हमारा परिचय पसन्द आ गया और उसने पार कर दिया या फिर नये ब्लागर्स के परिचय पत्र टांगने की प्रथा ही नही है. अब ये बात तो सारे बजुर्ग ब्लागर बन्धु ही बता पायेंगे, हम अज्ञानी लोग क्या जाने इस बारे मे.
Sunday, November 21, 2004
कानपुर टेस्ट अपडेट
और लो भाई,
भारतीय क्रिकेट टीम जो दक्षिण अफ्रीकी टीम को हल्का समझ रही थी, सोच रही थी कि नये खिलाड़ियो से बनी टीम को अपने देश मे हराना आसान रहेगा. साथ ही भारत का मीडिया जगत भी इस सीरीज को भारतीय टीम की टेस्ट रेंकिग को ठीक करने का माध्यम बता रहे थे, सबके मुंह पर पहले टेस्ट के दो दिन के खेल को देखकर ताला लटक गया है.
दूसरे दिन के खेल चल रहा है, चाय के बाद का अभी तक का स्कोर 454/7 है, और सिवाय कुम्बले के बाकी सभी बालर्स बेबस नजर आ रहे है. अभी जिस विकिट पर लगभग सारे अफ्रीकी बेट्समैन जम के खेल रहे है, इसी विकिट पर कल भारतीय बल्लेबाजो की परीक्षा होना बाकी है. पिछले रिकार्डस के मद्देनजर यह अन्दाजा लगाना मुश्किल नही होगा कि कल क्या होने वाला है.
अभी कुछ भी कहना, सही नही होगा.. फिर भी इस मैच से नतीजे की उम्मीद रखना, वो भी भारत के पक्ष मे यकीनन नाइन्साफी होगी. देखते है, कल क्या होता है.
भारतीय क्रिकेट टीम जो दक्षिण अफ्रीकी टीम को हल्का समझ रही थी, सोच रही थी कि नये खिलाड़ियो से बनी टीम को अपने देश मे हराना आसान रहेगा. साथ ही भारत का मीडिया जगत भी इस सीरीज को भारतीय टीम की टेस्ट रेंकिग को ठीक करने का माध्यम बता रहे थे, सबके मुंह पर पहले टेस्ट के दो दिन के खेल को देखकर ताला लटक गया है.
दूसरे दिन के खेल चल रहा है, चाय के बाद का अभी तक का स्कोर 454/7 है, और सिवाय कुम्बले के बाकी सभी बालर्स बेबस नजर आ रहे है. अभी जिस विकिट पर लगभग सारे अफ्रीकी बेट्समैन जम के खेल रहे है, इसी विकिट पर कल भारतीय बल्लेबाजो की परीक्षा होना बाकी है. पिछले रिकार्डस के मद्देनजर यह अन्दाजा लगाना मुश्किल नही होगा कि कल क्या होने वाला है.
अभी कुछ भी कहना, सही नही होगा.. फिर भी इस मैच से नतीजे की उम्मीद रखना, वो भी भारत के पक्ष मे यकीनन नाइन्साफी होगी. देखते है, कल क्या होता है.
Friday, November 19, 2004
कानपुर और क्रिकेट
चलो भाई,आखिर इतने सालो बाद कानपुर मे टेस्ट मैच हो रहा है, बहुत खुशी की बात है, और मेरी सहानुभूति गेट पर खड़े सुरक्षाकर्मियों से है, बेचारे सुबह सुबह तो बड़े चौकस रहते है, लेकिन धीरे धीरे थकने लगते है, और मुफ्तखोर अन्दर प्रवेश पा लेते है.
क्रिकेट के मुत्तालिक कानपुर की कुछ परम्पराये रही है, पहली कि टिकटधारी,बाहर खड़े होते है और बेटिकट वाले अन्दर मैदान मे मैच देख रहे होते है. हर बार प्रशासन तगड़े इन्तजाम करता है, और बोलता है कि कोई मुफ्तखोर इधर नही आ सकता, लेकिन फिर भी...कानपुर है..... अगर आप कानपुर मे रहते है और मेरी बात का विश्वास नही है तो कल ही एक ट्रायल मारिये और ग्रीनपार्क के बाहर टहल आइये.... आपको सैकड़ो की संख्या मे लोग अपने टिकट दिखाते हुए मिल जायेंगे और बोलेंगे कि यार इस भीड़ मे कैसे जाये.... कई बार ट्राई किया हर बार भीड़ ने वापस उछाल दिया. और हाँ वहाँ जाने से पहले अपने पर्स वगैरहा को घर पर ही रखियेगा...क्योंकि जेबकतरो का यह सीजन होता है, आपका पर्स कब पार हो जाये पता ही नही चलेगा...फिर मत कहना पहले आगाह नही किया. हर तरह के इन्क्लोजर मे बैठने के अलग पैंतरे है, पवेलियन मे बिना टिकट बैठने के लिये आप या तो अच्छा सा सफारी सूट या फिर झक सफेद कुर्ता पहने हो, आपके आगे कुछ मित्र, नेताजी की जय के नारे लगाते हुए भीड़ को हटाते रहे और आप अपने दल बल सहित अन्दर प्रवेश पा लेंगे.
थोड़े सस्ते इन्कलोजर्स मे आपको दरोगाजी या सिपाही को सैट करना होता है, ये सैटिंग, सामने लगी पान की गुमटी पर होती है, या फिर दूर लगे स्कूटर स्टैन्ड पर, सब कुछ व्यवस्थित है, इसे मजाक मत समझे, आप खुद चैक कर ले. अब बारी आती है, स्टूडेन्ट वाले इन्क्लोजर्स की, तो वहाँ पर तो आपसे कोई पूछने वाला नही होगा...बस चेहरे पर एक तो लाल काली पट्टियां पहन कर चले जाये...दाढी अगर दो तीन दिन से नही बनायी है तो सोने पर सुहागा.... वैसे भी पुलिस वाले इस इन्कलोजर्स पर अपनी ड्यूटी लगवाने से डरते है, यहाँ पर आपको थोड़ा इन्तजार करना पड़ेगा...क्योकि जब सारे बन्दे इकट्ठे होंगे तब ही तो एक रेला बनाकर गेट की तरफ कूच करेंगे....आप अपने आपको रेले मे बीच मे ही रखे,ताकि दोनो तरफ से अगर पुलिस वाले लाठी चलाये तो अगल बगल वाले ही घायल हो,आप नही,अपने चश्मे,घड़ी और पर्स का विशेष ध्यान रखे,कई बार तो लोगो के रूमाल, कालर और ना जाने क्या क्या गायब हुए.,जितना बड़ा रेला उतनी ज्यादा आसानी..पुलिस वाले रेले का साइज देख कर ही एक्शन लेते है, मतलब? अरे यार या तो लाठिया चलाते है या फिर गेट छोड़कर भाग जाते है.
इसके अलावा कानपुर के ग्रीन पार्क की एक और परम्परा है, कि मैच के बीच मे कम से कम एक बार आवारा कुत्ता जरूर घुसता है, चाहे जितनी ही कड़ी सुरक्षा व्यवस्था क्यों ना हो, तो फिर जनाब आप तैयार है ना मैच देखने के लिये..... साथ मे क्या क्या ले जाना है? अरे यार ये भी हमको बताना पड़ेगा क्या? दीवाली के बाद कुछ पटाखे बचे होंगे, वो ले जाना, गुब्बारे या कोई सब्सटिटयूट(समझ गये ना?), स्केच पेन, कागज बगैरहा, पाकेट रेडियो और हाँ टाइम पास करने के लिये ताश तो बहुत ही जरूरी है.
तो फिर आप इन्जवाय करे अपना टेस्ट मैच...... हम जा रहे है स्वामी के घर, उनकी भारतीय क्रिकेट टीम के प्रति नाराजगी को झेलने....
क्रिकेट के मुत्तालिक कानपुर की कुछ परम्पराये रही है, पहली कि टिकटधारी,बाहर खड़े होते है और बेटिकट वाले अन्दर मैदान मे मैच देख रहे होते है. हर बार प्रशासन तगड़े इन्तजाम करता है, और बोलता है कि कोई मुफ्तखोर इधर नही आ सकता, लेकिन फिर भी...कानपुर है..... अगर आप कानपुर मे रहते है और मेरी बात का विश्वास नही है तो कल ही एक ट्रायल मारिये और ग्रीनपार्क के बाहर टहल आइये.... आपको सैकड़ो की संख्या मे लोग अपने टिकट दिखाते हुए मिल जायेंगे और बोलेंगे कि यार इस भीड़ मे कैसे जाये.... कई बार ट्राई किया हर बार भीड़ ने वापस उछाल दिया. और हाँ वहाँ जाने से पहले अपने पर्स वगैरहा को घर पर ही रखियेगा...क्योंकि जेबकतरो का यह सीजन होता है, आपका पर्स कब पार हो जाये पता ही नही चलेगा...फिर मत कहना पहले आगाह नही किया. हर तरह के इन्क्लोजर मे बैठने के अलग पैंतरे है, पवेलियन मे बिना टिकट बैठने के लिये आप या तो अच्छा सा सफारी सूट या फिर झक सफेद कुर्ता पहने हो, आपके आगे कुछ मित्र, नेताजी की जय के नारे लगाते हुए भीड़ को हटाते रहे और आप अपने दल बल सहित अन्दर प्रवेश पा लेंगे.
थोड़े सस्ते इन्कलोजर्स मे आपको दरोगाजी या सिपाही को सैट करना होता है, ये सैटिंग, सामने लगी पान की गुमटी पर होती है, या फिर दूर लगे स्कूटर स्टैन्ड पर, सब कुछ व्यवस्थित है, इसे मजाक मत समझे, आप खुद चैक कर ले. अब बारी आती है, स्टूडेन्ट वाले इन्क्लोजर्स की, तो वहाँ पर तो आपसे कोई पूछने वाला नही होगा...बस चेहरे पर एक तो लाल काली पट्टियां पहन कर चले जाये...दाढी अगर दो तीन दिन से नही बनायी है तो सोने पर सुहागा.... वैसे भी पुलिस वाले इस इन्कलोजर्स पर अपनी ड्यूटी लगवाने से डरते है, यहाँ पर आपको थोड़ा इन्तजार करना पड़ेगा...क्योकि जब सारे बन्दे इकट्ठे होंगे तब ही तो एक रेला बनाकर गेट की तरफ कूच करेंगे....आप अपने आपको रेले मे बीच मे ही रखे,ताकि दोनो तरफ से अगर पुलिस वाले लाठी चलाये तो अगल बगल वाले ही घायल हो,आप नही,अपने चश्मे,घड़ी और पर्स का विशेष ध्यान रखे,कई बार तो लोगो के रूमाल, कालर और ना जाने क्या क्या गायब हुए.,जितना बड़ा रेला उतनी ज्यादा आसानी..पुलिस वाले रेले का साइज देख कर ही एक्शन लेते है, मतलब? अरे यार या तो लाठिया चलाते है या फिर गेट छोड़कर भाग जाते है.
इसके अलावा कानपुर के ग्रीन पार्क की एक और परम्परा है, कि मैच के बीच मे कम से कम एक बार आवारा कुत्ता जरूर घुसता है, चाहे जितनी ही कड़ी सुरक्षा व्यवस्था क्यों ना हो, तो फिर जनाब आप तैयार है ना मैच देखने के लिये..... साथ मे क्या क्या ले जाना है? अरे यार ये भी हमको बताना पड़ेगा क्या? दीवाली के बाद कुछ पटाखे बचे होंगे, वो ले जाना, गुब्बारे या कोई सब्सटिटयूट(समझ गये ना?), स्केच पेन, कागज बगैरहा, पाकेट रेडियो और हाँ टाइम पास करने के लिये ताश तो बहुत ही जरूरी है.
तो फिर आप इन्जवाय करे अपना टेस्ट मैच...... हम जा रहे है स्वामी के घर, उनकी भारतीय क्रिकेट टीम के प्रति नाराजगी को झेलने....
Tuesday, November 16, 2004
क्या है भारतीय संस्कृति?
अक्षरग्राम अनुगून्ज
दूसरा आयोजन
कभी कभी मेरे अंग्रेज और अन्य अभारतीय मित्र मेरे से कई तरह के सवाल पूछते है, जैसे हमारी संस्कृति कैसी है, हमारे इतने सारे देवी देवता क्यों है, अगर हम सभी एक जैसे है तो हमारे यहाँ विभिन्न प्रकार की जातिया प्रजातिया क्यों है? वर्ण सिस्टम का क्या महत्व है? और हमारे हर त्योहारों के साथ कोई ना कोई कथा क्यो जुड़ी हुई है? भारत मे इतनी भाषाओ के बावजूद कौन सी चीज लोगो को जोड़े रखती है? जब आप लोग अपने को एक मानते हो तो फिर दंगे फसाद क्यो होते है, आपके धर्म और संस्कृति मे इतने विरोधाभास क्यों है? वगैरहा वगैरहा..... मैने उन्हे समझाने की कुछ कोशिश की है, आइये आप भी देखिये कि मै इसमे कितना सफल हो सका हूँ.
किसी भी देश का अपना इतिहास होता है, परम्परा होती है. यदि हम देश को शरीर माने तो, संस्कृति उसकी आत्मा होती है, या शरीर मे दौड़ने वाला रक्त होता है या फिर सांस.....जो शरीर को चलाने के लिये अतिआवश्यक है. किसी भी संस्कृति में अनेक आदर्श रहते हैं, आदर्श मूल्य है, और मूल्यों का मुख्य संवाहक संस्कृति होती है. भारतीय संस्कृति में मुख्य रूप से चार मूल्यों की प्रधानता दी गयी है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लेकिन कोई भी व्यक्ति इन चारों पुरुषार्थों अथवा मूल्यो को एक ही काल में एक ही साथ चरितार्थ नहीं कर सकता है, क्योंकि व्यक्ति का जीवन सीमित होता है, इसलिए हिन्दू धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था एवं पुनर्जन्म पर बल दिया गया है. वर्णाश्रम व्यवस्था को यदि गुण और कर्म पर आधारित माने तो यह व्यवस्था आज भी अत्यन्त वैज्ञानिक एवं उपादेय प्रतीत होती है. अगर देखा जाय तो यह वर्णाश्रम धर्म ही है इसकी बदौलत ऊँचे से ऊँचे ब्राह्मण पैदा हुए, ब्राह्मणों ने तो अपने लिए धर्म का काम लिया दान देना लेना, विद्या पढ़ना पढ़ाना, क्षत्रियों का कर्तव्य था कि जहाँ जरूरत पड़े वहाँ जान दे लेकिन मान को न जाने दें. वैश्य का कर्तव्य था कि वेद - वेदांग पढ़े और व्यापार करता रहे और शुद्रो को कर्तव्य था कि अन्य सभी कामो को अन्जाम देना. जब शुद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था तब वेदव्यासजी ने चारों वेदों का अर्थ महाभारत में भर दिया ताकि सब प्राणी लाभ उठा सकें. यह हिन्दू संस्कृति की समानता का एक प्रतीक है.
भारत पर विदेशियो ने अनेक बार आक्रमण किया और हिन्दु संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की,लेकिन वो संस्कृति ही क्या जो मिट जाये, भारत आये अनेक आक्रमणकारियो ने भी माना कि इस देश की संस्कृति को नष्ट करना नामुमकिन है, बल्कि उनमे से कई लोग अपने साथ विभिन्न प्रकार के धर्म और सम्प्रदाय ले आये, और कई यहीं पर बस गये, जिससे गंगा जमुनी संस्कृति का जन्म हुआ,जिसे भारतीय संस्कृति ने बड़ी ही सहनशीलता के साथ स्वीकारा और गले लगाया. विभिन्न वेद शास्त्र हमारी संस्कृति का हिस्सा है, इसके अतिरिक्त भारत की अन्य परम्परायें जैसे अतिथि देवो भवः, सामाजिक आचार व्यवहार,शरणागत रक्षा,सर्वधर्म समभाव,वसुधैव कुटुम्बकम,अनेकता मे एकता जैसी प्रमुख है.
पुराने जमाने से ही हमे समझाया गया है कि घर आया अतिथि भगवान के समान है, हम खुद भले ही भूखे रह जाये,लेकिन अतिथि का पेट भरना जरूरी है.इसी तरह से हमे समाज मे कैसा व्यवहार एवं आचरण करना चाहिये,इसकी शिक्षा हमारी संस्कृति हमे देती है, विभिन्न कहानियो एव लोकोत्तियो के द्वारा, हमे बड़ो की इज्जत करनी चाहिये और छोटो के प्रति स्नेह का आचरण करना चाहिये, एवम महिलाओ और बुजुर्गो के प्रति विशेष सम्मान दिखाना चाहिये.इसके अतिरिक्त शरण मे आये व्यक्ति की रक्षा करना हमारा परम धर्म है.
भारत ही केवल एक ऐसा देश है जहाँ सर्वधर्म समभाव का पूरा पूरा ध्यान रखा गया है, जितनी इज्जत हम अपने धर्म की करते है, उतनी ही इज्जत हमे दूसरो के धर्म की करनी चाहिये.यहाँ सुबह सुबह मंदिर से मन्त्रोचार की ध्वनि,मस्जिद से अजान,गुरूद्वारे से शबद कीर्तन की आवाज और चर्च से प्रार्थना की पुकार एक साथ सुनी जा सकती है.जितनी भाषाये यहाँ बोली जाती है, विश्व मे कहीं और नही बोली जाती.बोल-चाल,खान-पान,रहन-सहन मे अनेकता होते हुए भी हम एक साथ रहते है, एक दूसरे के तीज त्योहार मे शिरकत करते है, होली,दीवाली,ईद,बाराबफात, मुहर्रम,गुरपर्ब और क्रिसमस साथ साथ मनायी जाती है. मजारो और मकबरो पर हिन्दूओ द्वारा चादर चढाना, और दूसरे सम्प्रदाय के लोगो का मंदिरो और गुरद्वारो पर दर्शन करना,मत्था टेकना बहुत आम बात है. यह हमारे धर्म और लोकाचार की सहनशीलता का जीता जागता उदाहरण है.
रही बात हमारे विभिन्न प्रकार के देवी देवता होने की...तो हिन्दू धर्म मे प्रकृति को हर तरह से पूजा गया है, चाहे वह वायू,जल,पृथ्वी, अग्नि या आकाश हो. इस प्रकार से हम प्रकृति के हर रूप की पूजा करते है, चाहे वह पहाड़ हो या कोई जीव जन्तु या हमारी वन्य सम्प्रदा, हमारी संस्कृति मे इन सबको विशेष स्थान दिया गया है.दुनिया मे ऐसी कोई संस्कृति नही होगी जहाँ प्रकृति को विभिन्न रूपो और स्वरूपो में पूजा गया है, रही बात त्योहारो से जुड़ी कहानियो की तो, सामान्य जनता जो उपनिषदो और वेदो की लिखी गूढ बातो को नही समझ सकती, उनके लोक आचरण के लिये विभिन्न ऋषि मुनियो ने अनेक गाथाये लिखी और उनको विभिन्न त्योहारो से इस तरह से जोड़ा कि सामान्य जन भी उसके साथ जुड़ सके और उसे अपना सके साथ ही ईश्वर का ध्यान और मनन कर सके.
इसके अतिरिक्त और भी चीजे हमारी संस्कृति मे जुड़ती रही, सारो का उल्लेख करना तो सम्भव नही हो सकेगा.. प्रमुख रूप से क्रिकेट की संस्कृति है, यह खेल अब हमारी संस्कृति मे शामिल हो गया है, क्रिकेटरो के अच्छे बुरे प्रदर्शन पर हमे हंसते रोते है, इनको अपने बच्चो से भी ज्यादा प्यार करते है, भगवान जैसी पूजा करते है, जब जीतते है तो तालिया बचाते है, जब हारते है तो गालिया देते है.
अब समस्या यहाँ आती है कि हम अपनी संस्कृति का कितना मान रख पाते है, वेद शास्त्र आपको रास्ता दिखा सकते है, लेकिन आपको उनपर चलने के लिये बाध्य नही कर सकते....एक और बात चूंकि ये सारे शास्त्र गूढ भाषा मे लिखे गये थे, इसलिये समय समय पर अनेक स्वार्थी धर्माचार्यो ने अपने और कुछ राजनीतिज्ञो के निहित स्वार्थो के लिये, इन शास्त्रो का मनमाने ढंग से विवेचना की और अपने फायदे के लिये इस्तेमाल किया. और अपनी दुकाने चलायी ...भाई को भाई से लड़ाया और विभिन्न समुदायो मे आपस मे बैर और नफरत फैलायी......और जो आज तक जारी है.इन्ही लोगो की वजह से हमारे यहाँ कभी कभी दंगे फसाद होते है, लेकिन आपसी भाईचारा कभी खत्म नही होता.
मार्क ट्वेन ने १८५६ मे जब भारत का दौरा किया था तो उसने लिखा था, भारत सांस्कृतिक रूप से परिपूर्ण राष्ट्र है. वैसे भी समय समय पर कई विदेशी विद्वानो ने भारत का दौरा किया और यहाँ की संस्कृति को दूनिया मे सबसे उन्नत माना.यही हमारी संस्कृति है, और हम सभी भारतीयो को इस पर गर्व है.
कोनफाबयूलेटर
कभी कभी हम चाहते है, कि कोई छोटा सा प्रोग्राम हमारी मर्जी का काम करे, जैसे शहर के ट्रेफिक का हाल,कैलकुलेटर, कन्वरजन टेबिल,मौसम की खबर,घड़ी, दुनिया भर की खबरे जैसी चीज हमारे डेस्कटाप पर हो.
ऐसे बहुत से प्रोग्राम मौजूद है, लेकिन इन सबमे परेशानी यह है कि इनको पूरी तरह से कस्टमाइज या रिडिजाइन नही किया जा सकता.. एक ऐसा प्रोग्राम मेरी नजर मे है जिसका नाम है KONFABULATOR लेकिन समस्या यह थी कि यह सिर्फ मैकिनतोश पर ही चलता था, लेकिन अब इसका विन्डोज पर भी वर्जन आ गया है, तो फिर देर किस बात की है.
बहुत सारे प्रोग्राम या कहे तो बने बनाये एपलेट मिल जायेंगे.. और यदि कोई आपके हिसाब का नही है तो अपना खुद डिजाइन कर लीजिये, यह भी बहुत आसान है.
आप भी डाउनलोड कीजिये और मनचाही जानकारी हासिल कीजिये.
ऐसे बहुत से प्रोग्राम मौजूद है, लेकिन इन सबमे परेशानी यह है कि इनको पूरी तरह से कस्टमाइज या रिडिजाइन नही किया जा सकता.. एक ऐसा प्रोग्राम मेरी नजर मे है जिसका नाम है KONFABULATOR लेकिन समस्या यह थी कि यह सिर्फ मैकिनतोश पर ही चलता था, लेकिन अब इसका विन्डोज पर भी वर्जन आ गया है, तो फिर देर किस बात की है.
बहुत सारे प्रोग्राम या कहे तो बने बनाये एपलेट मिल जायेंगे.. और यदि कोई आपके हिसाब का नही है तो अपना खुद डिजाइन कर लीजिये, यह भी बहुत आसान है.
आप भी डाउनलोड कीजिये और मनचाही जानकारी हासिल कीजिये.
भारतीय झगड़ा पार्टी
पिछले कुछ हफ्तो मे हिन्दुस्तान की राजनीति मे बेहद नाटकीय घटनाक्रम हुए... हमने मिर्जा से प्रतिक्रिया चाही, जो अभी अभी ईद मनाकर लौटे है..
देखो बरखुरदार... अपनी साध्वी के दो ही शौक है, रूठना और गुस्सा करना...उमा भारती जो पहले रूठ कर पहाड़ो पर चली गयी थी... आडवानी के अध्यक्ष बनते ही बुलावा मिलने पर तपाक से दिल्ली लौटी.. तो किसी ने पूछा, उमाजी आप तो कह रही थी.. भारत दर्शन करेंगी, और दो साल तक राजनीति से दूर रहेंगी.. तो उमा का जवाब था, भाजपा का कार्यालय ही मेरा भारत है, और यही मेरा दर्शन,इसी के चक्कर लगा कर अपना भारत दर्शन का लक्ष्य पूरा कर लूंगी. और रही बार राजनीति से दूर रहने की, तो जब आडवानी जी जैसे योग्य व्यक्ति अध्यक्ष बने है तो उनके अधीन काम करने का मौका गवाना नही चाहती... दरअसल ये तो सब पर्दे के पीछे हुई सौदेबाजी थी... जिसके तहत उनको महासचिव का पद मिला. लेकिन इस पर भी वह लटक गयीं और प्रमोद महाजन से पंगा लेने लगी......वगैरहा वगैरहा...
कहते है ना विनाश काले विपरीत बुद्दी......इन्सान का वक्त खराब आता है तो गलतिया अपने आप होने लगती है... अपनी उमा फिर अपने गुस्से पर काबू नही रख सकी, और इस बार आडवानी के सामने गुस्सा दिखा दिया.. अरे कुछ तो ख्याल किया होता... बेचारे बुजुर्ग आडवानी वैसे ही भारतीय झगड़ा पार्टी से परेशान है, और ऊपर से ये मुसीबत, और पता नही किस खबीस ने मीडिया वालो को भी वहाँ पर बुला लिया था...लाइव कवरेज के लिये...... कांग्रेस वाले ऐसी गलती कभी नही करते.. सभी गालीगलौच वाली सभाओ से मीडिया वालो को हमेशा दूर रखते है.....हाँ रोना धोना और त्याग वाली सभाओ की लाइव कवरेज करवाते है........ सो इस सभा मे मीडिया वालो को काफी मसाला मिल गया.. सारे चैनल वालो ने हर एंगिल से उमा को सभा से जाते हुए दिखाया...बार बार,लगातार दिखाया... मेरी बच्ची से रहा नही गया, वो बोल ही पड़ी कि किस कम्पनी के कपड़ो का विज्ञापन है ये....बार बार दिखा रहे है...... यहाँ तक तो गनीमत थी... फिर चौरसिया पनवाड़ी से लेकर भीखू भिखारी तक की प्रतिक्रिया दिखाई गयी.......और तो और एक चैनल तो और आगे चला गया और उसने कुछ मनौवैज्ञानिक तक बुलवा लिये और उमा के पार्टी सभा के बहिष्कार के एक एक कदम को एनालाइज करवाया. और खोज की कि उमा को गुस्सा क्यों आता है?....धन्य हो प्रभू....इसे कहते है कवरेज.... लुटी पिटी भाजपा.. मौज ली पूरी दुनिया ने....
अब आडवानी को गुस्सा क्यो ना आता... बेचारे को कठोर निर्णय लेना पड़ा.... निकाल फेंका साध्वी को पार्टी से.......और तो और विश्व हिन्दु परिषद और संघ ने भी दुश्मनी निकालने मे कोई कसर नही छोड़ी... और साध्वी को अपने साथ शामिल होने का निमन्त्रण दे डाला...... इसे कहते है राजनीति. जब दोस्त यार ऐसे हो तो दुश्मन की कमी नही खलती कभी.
अब साध्वी फिर पहाड़ो पर चली गयी है.... शायद कुछ दिमाग ठन्डा हो जाये... लेकिन बहुत जल्दी वापस लौटेंगी और फिर किसी दिन भाजपा के कार्यालय मे दिखेंगी.... शायद किसी अच्छे मौके का इन्तजार है.....और फिर मीडिया वालो को इन्तजार होगा किसी और पंगे का.
इस बीच अपने मदन लाल खुराना, जो पुराने पंगेबाज है, राजस्थान के राज्यपाल रहते हुए भी वसुन्धरा से ही पंगे लेते रहे.. ये जनाब जब भी कुछ बोलते है तो कोई ना कोई फड्डा जरूर हो जाता है.......अब दिल्ली लौट आये है, शीला दीक्षित की नीन्द हराम करने........कहते है दिल्ली तो मेरा मंदिर है, जलेबी है, दिल का टुकड़ा है, दिल्लीवासी मेरे देवता और मै पुजारी........ अरे खुराना साहब क्यो लम्बी लम्बी फेंक रहे हो.....अभी अभी आये हो बैठो सांस लो... तेल देखो तेल की धार देखो.. फिर पंगे लो......ध्यान रखना... इस बार आडवानी जी अच्छे मूड मे नही है, हां.. बाद मे नही कहना कि बताया नही.
इस बीच भारत कोलकता मे खेला गया क्रिकेट का वन डे मैच पाकिस्तान से हार गया.... हमारे क्रिकेट एक्सपर्ट स्वामी बहुत परेशान है, प्रतिक्रिया देने के लिये....लेकिन अपना मिर्जा है कि उसको बोलने ही नही दे रहा... दूसरी तरफ यदि हम लम्बा लेख लिखते है तो ब्लागर भाई लोग बोलते है किंग साइज लिखते है.. इसलिये स्वामी की प्रतिक्रिया अगले लेख मे.
देखो बरखुरदार... अपनी साध्वी के दो ही शौक है, रूठना और गुस्सा करना...उमा भारती जो पहले रूठ कर पहाड़ो पर चली गयी थी... आडवानी के अध्यक्ष बनते ही बुलावा मिलने पर तपाक से दिल्ली लौटी.. तो किसी ने पूछा, उमाजी आप तो कह रही थी.. भारत दर्शन करेंगी, और दो साल तक राजनीति से दूर रहेंगी.. तो उमा का जवाब था, भाजपा का कार्यालय ही मेरा भारत है, और यही मेरा दर्शन,इसी के चक्कर लगा कर अपना भारत दर्शन का लक्ष्य पूरा कर लूंगी. और रही बार राजनीति से दूर रहने की, तो जब आडवानी जी जैसे योग्य व्यक्ति अध्यक्ष बने है तो उनके अधीन काम करने का मौका गवाना नही चाहती... दरअसल ये तो सब पर्दे के पीछे हुई सौदेबाजी थी... जिसके तहत उनको महासचिव का पद मिला. लेकिन इस पर भी वह लटक गयीं और प्रमोद महाजन से पंगा लेने लगी......वगैरहा वगैरहा...
कहते है ना विनाश काले विपरीत बुद्दी......इन्सान का वक्त खराब आता है तो गलतिया अपने आप होने लगती है... अपनी उमा फिर अपने गुस्से पर काबू नही रख सकी, और इस बार आडवानी के सामने गुस्सा दिखा दिया.. अरे कुछ तो ख्याल किया होता... बेचारे बुजुर्ग आडवानी वैसे ही भारतीय झगड़ा पार्टी से परेशान है, और ऊपर से ये मुसीबत, और पता नही किस खबीस ने मीडिया वालो को भी वहाँ पर बुला लिया था...लाइव कवरेज के लिये...... कांग्रेस वाले ऐसी गलती कभी नही करते.. सभी गालीगलौच वाली सभाओ से मीडिया वालो को हमेशा दूर रखते है.....हाँ रोना धोना और त्याग वाली सभाओ की लाइव कवरेज करवाते है........ सो इस सभा मे मीडिया वालो को काफी मसाला मिल गया.. सारे चैनल वालो ने हर एंगिल से उमा को सभा से जाते हुए दिखाया...बार बार,लगातार दिखाया... मेरी बच्ची से रहा नही गया, वो बोल ही पड़ी कि किस कम्पनी के कपड़ो का विज्ञापन है ये....बार बार दिखा रहे है...... यहाँ तक तो गनीमत थी... फिर चौरसिया पनवाड़ी से लेकर भीखू भिखारी तक की प्रतिक्रिया दिखाई गयी.......और तो और एक चैनल तो और आगे चला गया और उसने कुछ मनौवैज्ञानिक तक बुलवा लिये और उमा के पार्टी सभा के बहिष्कार के एक एक कदम को एनालाइज करवाया. और खोज की कि उमा को गुस्सा क्यों आता है?....धन्य हो प्रभू....इसे कहते है कवरेज.... लुटी पिटी भाजपा.. मौज ली पूरी दुनिया ने....
अब आडवानी को गुस्सा क्यो ना आता... बेचारे को कठोर निर्णय लेना पड़ा.... निकाल फेंका साध्वी को पार्टी से.......और तो और विश्व हिन्दु परिषद और संघ ने भी दुश्मनी निकालने मे कोई कसर नही छोड़ी... और साध्वी को अपने साथ शामिल होने का निमन्त्रण दे डाला...... इसे कहते है राजनीति. जब दोस्त यार ऐसे हो तो दुश्मन की कमी नही खलती कभी.
अब साध्वी फिर पहाड़ो पर चली गयी है.... शायद कुछ दिमाग ठन्डा हो जाये... लेकिन बहुत जल्दी वापस लौटेंगी और फिर किसी दिन भाजपा के कार्यालय मे दिखेंगी.... शायद किसी अच्छे मौके का इन्तजार है.....और फिर मीडिया वालो को इन्तजार होगा किसी और पंगे का.
इस बीच अपने मदन लाल खुराना, जो पुराने पंगेबाज है, राजस्थान के राज्यपाल रहते हुए भी वसुन्धरा से ही पंगे लेते रहे.. ये जनाब जब भी कुछ बोलते है तो कोई ना कोई फड्डा जरूर हो जाता है.......अब दिल्ली लौट आये है, शीला दीक्षित की नीन्द हराम करने........कहते है दिल्ली तो मेरा मंदिर है, जलेबी है, दिल का टुकड़ा है, दिल्लीवासी मेरे देवता और मै पुजारी........ अरे खुराना साहब क्यो लम्बी लम्बी फेंक रहे हो.....अभी अभी आये हो बैठो सांस लो... तेल देखो तेल की धार देखो.. फिर पंगे लो......ध्यान रखना... इस बार आडवानी जी अच्छे मूड मे नही है, हां.. बाद मे नही कहना कि बताया नही.
इस बीच भारत कोलकता मे खेला गया क्रिकेट का वन डे मैच पाकिस्तान से हार गया.... हमारे क्रिकेट एक्सपर्ट स्वामी बहुत परेशान है, प्रतिक्रिया देने के लिये....लेकिन अपना मिर्जा है कि उसको बोलने ही नही दे रहा... दूसरी तरफ यदि हम लम्बा लेख लिखते है तो ब्लागर भाई लोग बोलते है किंग साइज लिखते है.. इसलिये स्वामी की प्रतिक्रिया अगले लेख मे.
मेरी खामोशी
सबसे पहले तो सभी पाठको तो ईद मुबारक. आप सभी खुश रहे, आबाद रहे...
और आप और आपके परिवार पर अल्लाह की मेहरबानी बरकरार रहे.
दोस्त यार पूछते है कि क्या लिखना बन्द कर दिया है.. मिर्जा साहब कहाँ है? क्या छुट्टन ने कोई नयी फिल्म नही देखी आसपास, या फिर छपास पीड़ा खत्म हो गयी..
इसके जवाब मे मेरे को किसी कवि की यह पंक्तियां याद आती है.
पता नही क्या समझूँ दिल की इस खामोशी का मतलब
कलम न जाने कब से दिल की हालत पूछे जाती है
डरता हूँ कहते है आलिम यार मेरे मुझसे ये जब के
सन्नाटे के बाद भयानक आँधी पीछे आती है।
दरअसल दीपावली के पहले कुछ कामो मे ऐसा उलझे और फिर दीपावली और ईद के एकसाथ पड़ने पर लिखने का समय ही नही निकल सका. रही बात मिर्जा साहब की तो जनाब पूरे रमजान भर तो रोजे पर थे.. सो राजनीतिक और अन्य विषयो के लिये कहाँ से समय निकालते.. और छुट्टन मिंया तो आजकल अपने वतन बांग्लादेश गये हुए है, अगले हफ्ते के आसपास उम्मीद है कि लौटेंगे. बचे हमारे पप्पू भइया, अभी लगे पड़े है दीपावली मिलन समारोह आयोजन मे.
मै बहुत जल्द ही लौटूंगा, पढते रहिये मेरा पन्ना
और आप और आपके परिवार पर अल्लाह की मेहरबानी बरकरार रहे.
दोस्त यार पूछते है कि क्या लिखना बन्द कर दिया है.. मिर्जा साहब कहाँ है? क्या छुट्टन ने कोई नयी फिल्म नही देखी आसपास, या फिर छपास पीड़ा खत्म हो गयी..
इसके जवाब मे मेरे को किसी कवि की यह पंक्तियां याद आती है.
पता नही क्या समझूँ दिल की इस खामोशी का मतलब
कलम न जाने कब से दिल की हालत पूछे जाती है
डरता हूँ कहते है आलिम यार मेरे मुझसे ये जब के
सन्नाटे के बाद भयानक आँधी पीछे आती है।
दरअसल दीपावली के पहले कुछ कामो मे ऐसा उलझे और फिर दीपावली और ईद के एकसाथ पड़ने पर लिखने का समय ही नही निकल सका. रही बात मिर्जा साहब की तो जनाब पूरे रमजान भर तो रोजे पर थे.. सो राजनीतिक और अन्य विषयो के लिये कहाँ से समय निकालते.. और छुट्टन मिंया तो आजकल अपने वतन बांग्लादेश गये हुए है, अगले हफ्ते के आसपास उम्मीद है कि लौटेंगे. बचे हमारे पप्पू भइया, अभी लगे पड़े है दीपावली मिलन समारोह आयोजन मे.
मै बहुत जल्द ही लौटूंगा, पढते रहिये मेरा पन्ना
Wednesday, November 10, 2004
दीपावली
क्योंकि आज दिवाली है,
मैंने भी एक दिया जलाया है।
अपने भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक, और दंगे फसाद जैसी
मानवीय आपदाओं को झेल
खण्ड़हर हुए उजड़े मकान के
उखडे उखडे आंगन में
भूख, बेकारी और लाचारी के बावजूद,
अपने पडौसी से उधार लेकर, एक दिया जलाया है,
क्योंकि आज दिवाली है।
रोशनी तो मुझे सड़क पर लगे
सरकारी लैपपोस्ट से भी मिल जाती है।
यह दीपक तो आशादीप है जो आशा की किरणे फैलाता है।
मैं हर वर्ष इस आशा में लगाता हूं कि
कभी न कभी किसी न किसी दिवाली पर तो
हजारों वर्षों के वनवास के बाद राम जरूर आयेंगे
और एक बार फिर इस देश में रामराज्य जरूर आयेगा।
( एस.के.भन्डारी जी की कविता)
आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये.
Sunday, November 07, 2004
पुलिस की लाचारी
पुलिस और लाचारी, बात कुछ जमी नही, हाँ भाई, पुलिस भी कभी कभी लाचार और बेबस हो जाती है, यहाँ दो मिसाले है, आप खुद ही पढ लीजिये.
ननकू को जेल
अब आप पूछेंगे कि ये ननकू कौन है, अरे भाई ननकू 104 साल के बुजुर्ग है, और लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज अस्पताल मे भर्ती है, ननकू पर 17 साल पहले बाराबंकी जिले मे एक व्यक्ति की हत्या मे हाथ होने का मामला दर्ज था, अदालत ने अब जाकर उसकी गिरफ्तारी का वारन्ट जारी किया है, अब पुलिस वाले समझ नही पा रहे है कि क्या करे, इतने बूढे आदमी को जेल मे भेजे या अस्पताल मे ही रहने दे, बेचारे पुलिस वाले
गावली ने पुलिस सुरक्षा मांगी
अभी कुछ दिन पहले अरूण गावली पर एक पत्रकार को पीटने का आरोप लगा था, अब गावली साहब, जो इन चुनाव मे विधायक बन गये है, कहते है कि मेरे को पुलिस सुरक्षा चाहिये, ताकि वह लोगो की ठीक तरह से सेवा कर सके... पुलिस वाले समझ नही पा रहे है कि क्या करे, कल तक जिसके पीछे पीछे दौड़ते थे, किसी तरह से इनकाउन्टर करने की सोचते थे, आज उसी की हिफाजत करेंगे....
इसे कहते है पुलिस की लाचारी
ननकू को जेल
अब आप पूछेंगे कि ये ननकू कौन है, अरे भाई ननकू 104 साल के बुजुर्ग है, और लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज अस्पताल मे भर्ती है, ननकू पर 17 साल पहले बाराबंकी जिले मे एक व्यक्ति की हत्या मे हाथ होने का मामला दर्ज था, अदालत ने अब जाकर उसकी गिरफ्तारी का वारन्ट जारी किया है, अब पुलिस वाले समझ नही पा रहे है कि क्या करे, इतने बूढे आदमी को जेल मे भेजे या अस्पताल मे ही रहने दे, बेचारे पुलिस वाले
गावली ने पुलिस सुरक्षा मांगी
अभी कुछ दिन पहले अरूण गावली पर एक पत्रकार को पीटने का आरोप लगा था, अब गावली साहब, जो इन चुनाव मे विधायक बन गये है, कहते है कि मेरे को पुलिस सुरक्षा चाहिये, ताकि वह लोगो की ठीक तरह से सेवा कर सके... पुलिस वाले समझ नही पा रहे है कि क्या करे, कल तक जिसके पीछे पीछे दौड़ते थे, किसी तरह से इनकाउन्टर करने की सोचते थे, आज उसी की हिफाजत करेंगे....
इसे कहते है पुलिस की लाचारी
Wednesday, November 03, 2004
विधानसभा मे चप्पलबाजी
अभी कल ही टीवी पर उड़ीसा विधान सभा मे चप्पलबाजी की घटना देखने को मिली, मन प्रसन्न हो गया, दिल बाग बाग हो गया, हमे लगा कि लोकतन्त्र अभी भी जिन्दा है.हमारे कांग्रेसी विधायक महोदय, विधानसभा के अन्दर, सत्तापक्ष की तरफ चप्पल फेंक कर अपने गुस्से का इजहार कर रहे थे. पूरी तरह से लोकतन्त्रीय व्यवस्था का सही नमूना पेश कर रहे थे.
ऐसा नही कि यह पहली बार हुआ है, दरअसल विधानसभा मे चप्पलबाजी का इतिहास बहुत पुराना है, एक तरफ जहाँ गुजरात,महाराष्ट्र,उत्तरप्रदेश और राजस्थान की विधानसभा मे चप्पले और माइक तक चल चुके है, तो फिर उड़ीसा क्यो पीछे रह जाता? पिछड़ेपन का ठप्पा ना लग जाता? ये तो भला हो कांग्रेसी विधायक अनूप साई का जिन्होने कांग्रेस की परम्परा और उड़ीसा की इज्जत की लाज रखी. हम सभी को तो इन विधायक महोदय का शुक्रिया अदा करना चाहिये और केन्द्र की सरकार को चाहिये कि इनको सम्मानित करे, आखिर इन्होने उड़ीसा के पिछड़ेपन को दूर करने मे सहायता की है.
जब विधायक से पूछा गया कि चप्पल क्यो चलायी, तो पहले मुकर गये, फिर जब वीडियो दिखाया गया तो बोले, हो सकता है, मै भावना मे बह गया होऊ, इसलिये चप्पल कब हाथ मे आ गयी कब उछल गयी, पता ही नही चला. वैसे दिल से मेरा इरादा किसी को नुकसान पहुँचाने का नही था.......... अब यह सब लीपापोती तो होती रहेगी.. कोई विधायक को दोषी ठहरायेगा, कोई भावनाओ को, कोई गुस्सा दिलाने वालो को, तो कोई चप्पल को.
मेरे ख्याल से केन्द्र की सरकार, विधानसभा मे चप्पल पहन कर आने पर पाबन्दी लगाने की सोचेगी.... लेकिन किस किस पर पाबन्दी लगायेगी,
आखिरी समाचार मिलने तक विधायक महोदय को इस सत्र के लिये निलम्बित कर दिया गया है, लेकिन क्या गारन्टी कि कहीं किसी और विधानसभा या लोकसभा मे फिर चप्पल जूता नही चलेगा?
ऐसा नही कि यह पहली बार हुआ है, दरअसल विधानसभा मे चप्पलबाजी का इतिहास बहुत पुराना है, एक तरफ जहाँ गुजरात,महाराष्ट्र,उत्तरप्रदेश और राजस्थान की विधानसभा मे चप्पले और माइक तक चल चुके है, तो फिर उड़ीसा क्यो पीछे रह जाता? पिछड़ेपन का ठप्पा ना लग जाता? ये तो भला हो कांग्रेसी विधायक अनूप साई का जिन्होने कांग्रेस की परम्परा और उड़ीसा की इज्जत की लाज रखी. हम सभी को तो इन विधायक महोदय का शुक्रिया अदा करना चाहिये और केन्द्र की सरकार को चाहिये कि इनको सम्मानित करे, आखिर इन्होने उड़ीसा के पिछड़ेपन को दूर करने मे सहायता की है.
जब विधायक से पूछा गया कि चप्पल क्यो चलायी, तो पहले मुकर गये, फिर जब वीडियो दिखाया गया तो बोले, हो सकता है, मै भावना मे बह गया होऊ, इसलिये चप्पल कब हाथ मे आ गयी कब उछल गयी, पता ही नही चला. वैसे दिल से मेरा इरादा किसी को नुकसान पहुँचाने का नही था.......... अब यह सब लीपापोती तो होती रहेगी.. कोई विधायक को दोषी ठहरायेगा, कोई भावनाओ को, कोई गुस्सा दिलाने वालो को, तो कोई चप्पल को.
मेरे ख्याल से केन्द्र की सरकार, विधानसभा मे चप्पल पहन कर आने पर पाबन्दी लगाने की सोचेगी.... लेकिन किस किस पर पाबन्दी लगायेगी,
आखिरी समाचार मिलने तक विधायक महोदय को इस सत्र के लिये निलम्बित कर दिया गया है, लेकिन क्या गारन्टी कि कहीं किसी और विधानसभा या लोकसभा मे फिर चप्पल जूता नही चलेगा?
Tuesday, November 02, 2004
तू कौन? खामंखा
कभी आपने किसी को दूसरे के फटे मे टांग अड़ाते देखा है, एक थे लखनऊ के साहब... दूसरे है श्रीलंका के जनाब एसएसपी लियानागे... अब इन्होने क्या ऐसा किया.... आप खुद ही पढ लीजिये...
जैसा कि आप सबको पता ही है कि अमरीकी चुनाव होने मे अभी कुछ घन्टो की देरी है, और ये भी नही पता कि कौन जीतेगा.. लेकिन लियानागे साहब जो एक व्यापारी है, उनको खुजली हुई और सब्र नही कर पाये और दे मारा पूरे पन्ने का विज्ञापन अखबार मे , बुश साहब को जीत पर बधाई देने के लिये, विज्ञापन भी सस्ता मद्दा नही, पूरे पूरे दस लाख रूपये का, जो कि एक औसत श्रीलंकाई व्यक्ति की दस साल की तनख्वाह के बराबर है. अपने मिंया मुशर्रफ को मलाल होगा कि फिर चूक गये, पहले बधाई देने से. दूसरी तरफ अपने बुश साहब भी सोंच रहे होंगे.. यार मै अभी जीता हो हूँ नही ये विज्ञापन पहले कैसे आ गया.....कौन है ये पिल्लू? कंही कोई अल-कायदा की साजिश तो नही?
इसे कहते है, तू कौन? खांमखा,..... क्यो पिले? बस ऐसे ही हाँबी है.
जैसा कि आप सबको पता ही है कि अमरीकी चुनाव होने मे अभी कुछ घन्टो की देरी है, और ये भी नही पता कि कौन जीतेगा.. लेकिन लियानागे साहब जो एक व्यापारी है, उनको खुजली हुई और सब्र नही कर पाये और दे मारा पूरे पन्ने का विज्ञापन अखबार मे , बुश साहब को जीत पर बधाई देने के लिये, विज्ञापन भी सस्ता मद्दा नही, पूरे पूरे दस लाख रूपये का, जो कि एक औसत श्रीलंकाई व्यक्ति की दस साल की तनख्वाह के बराबर है. अपने मिंया मुशर्रफ को मलाल होगा कि फिर चूक गये, पहले बधाई देने से. दूसरी तरफ अपने बुश साहब भी सोंच रहे होंगे.. यार मै अभी जीता हो हूँ नही ये विज्ञापन पहले कैसे आ गया.....कौन है ये पिल्लू? कंही कोई अल-कायदा की साजिश तो नही?
इसे कहते है, तू कौन? खांमखा,..... क्यो पिले? बस ऐसे ही हाँबी है.
Monday, November 01, 2004
क्या देह ही है सब कुछ?
(अक्षरग्राम अनुगून्ज : पहला आयोजन)
अभी कुछ दिन पहले ही मै किसी म्यूजिक चैनल पर गाने देख रहा था... अचानक एक रिमिक्स गाना प्रसारित हुआ, ले के पहला पहला प्यार , ये सुरीला गाना शमशाद बेगम,रफी साहब और आशाजी ने गाया था, वैसे सुनने मे रिमिक्स भी बुरा नही लगा... लेकिन जैसे ही मैने गाना देखा.....ये क्या... इतने प्यारे गाने की बाकायदा मां-बहन की गयी थी...एक लड़की जिसने नाम मात्र के कपड़े पहने रखे थे, बड़े ही भौंडे और बेहूदे तरीके से डांस, नही बस बेढब तरीके से बदन हिला रही थी., साथ ही साथ उसकी आंखे अश्लील इशारे भी कर रही थी.......इसे डांस कम अंग प्रदर्शन कहना उचित होगा. मै समझ नही सका वो क्या दिखाना चाहती थी और छुपाना क्या ,इससे अच्छा तो यही होता कि जो पहने थी वो भी उतार देती. यह सब देखकर मैने अपना सर पीट लिया, और तुरन्त ही चैनल बदल दिया.लेकिन क्या चैनल बदलना ही सही सालयूशन है, क्या दूसरे चैनलो पर यह सब नही दिखाया जा रहा है? यकीनन वहाँ पर भी लगभग यही सब कुछ है, कब तक चैनेल बदलेंगे? कब तक हम सच्चाई से मुंह मोड़ेंगे.
अब सवाल यह उठता है, क्या देह ही सबकुछ है? हमारी पूछो तो नही....आज भी प्यार,रिश्ते,संवेदना,इमोशन्स और फीलिन्गस का स्थान देह और सेक्स से पहले है, लेकिन इन मीडिया वालों को कौन समझाये, इनको तो अपना सामान बिकने से मतलब है, भाड़ मे जाये बाकी सारी बातें, सामाजिक मंच वाले इन सबके लिये टीवी,फिल्मो और मीडिया को इसका दोषी ठहराता है.....फिल्म वाले बोलते है, सिनेमा समाज का आईना है, नयी नयी एक्ट्रेस बोलती है, जब कुछ दिखाने को है तो क्यों ना दिखाऊ,मेरा जिस्म है, मेरी मर्जी, हर दूसरा स्टार अपने कपड़े उतारने को तैयार बैठा है, अब टीवी चैनल वालों से पूछो तो बोलते है, प्रोग्राम हम थोड़े ही बनाते है, जो प्रोडयूसर बनाते है वही दिखाते है, प्रोडयूसर बोलते है जो समाज मे घटित होता है उसी से प्रेरित होकर प्रोग्राम बनाते है, समाज से बात करों तो पानी पी पीकर टीवी वालों को गालिया देते है, अब मामला तो फिर वहीं पहुँच जाता है, जहाँ से शुरू हुआ था, हर आदमी अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है, दरअसल सेक्स के प्रति लोगो के सोच और नजरिये मे कुछ तो फर्क आया है, लेकिन वो फर्क बहुत ही छोटे वर्ग मे आया है और यह फर्क बहुत ही मामूली है, लेकिन मीडिया और फिल्म वालो ने इस मामूली फर्क या सोंच को बहुत बड़ा बदलाव मान लिया और बड़ा चढाकर दिखाने के लिये दे दनादन सीरियल और फिल्मे और वीडियो उतार दी मैदान मे, कुछ हिट हुई, कुछ पिटी, समाजसेवी फिल्मे देख देख कर मजे लेते रहे,आपस मे चिकोली करते रहे और सिनेमाहाल के बाहर निकल कर फिल्म वालों को गालिया देते रहे.
दरअसल गलती इनकी भी नही है, सेक्स के प्रति हमारे समाज की राय काफी पाखंडी किस्म की है, हम खुद तो यह सब देखना चाहते है, चटखारे ले ले कर देखते है, देख देख कर मन ही मन आनन्दित होते है, फैन्टिसाइज करते है, लेकिन कोई दूसरा देखता है तो हमे बुरा लगता है, हम खूब हाय हाय करते है, हो हल्ला मचाते है, सामाजिक पतन की दुहायी देते है, बोलते है इसे बैन करो, कुछ शर्म करो, थोड़ा परिष्कृत ढंग से दिखाना चाहिये... बच्चो के बिगड़ने का डर है, वगैरहा वगैरहा......... मन ही मन हमारे अन्दर बैठा समाज सुधारक जाग उठता है, ऐसा क्यों है? क्यो नही हम समाज मे आने वाले बदलाव के लिये रास्ता बनाते, उसे अपनी सीमाये खुद तय करने का मौका देते. हम क्यों नही, नयी पीढी को सोचने देते कि वो क्या देखना चाहती है, क्या नही. वैसे भी सैटेलाइट टीवी और इन्टरनेट के युग मे भारत हो या अमरीका, हर जगह मामला एक जैसा ही है,चाहे हम लाख जतन कर ले, हम इस बदलाव को रोक नही सकते. और यह कहना कि हम पश्चिमी संस्कृति की तरफ जा रहे है, नकल कर रहे है, तो पक्का है कि कहीं ना कहीँ हमारी संस्कृति ने गैप छोड़ा होगा जो नयी पीढी दूसरी तरफ जा रही है. थोड़ा समय लगेगा.. हम जो पुरानी पीढी का प्रतिनिधित्व करते है, कुछ दिन भिनभिनायेंगे, चिढेंगे, चैनल बदलेंगे, बच्चो को रोकेंगे, फिर कुछ दिन बाद हमे इन सब चीजो की आदत पड़ ही जायेगी. मै इस रियेक्शन को नये बदलाव के प्रति प्रारम्भिक रियेक्शन मानता हूँ, तब तक नयी पीढी भी कुछ मैच्योर हो जायेंगी और अपना भला बुरा सोचने समझने लायक हो जायेगी.दरअसल, देह और सेक्स से रिलेटेड विचार, धर्म,संस्कृति और देश के हिसाब से बदलते रहते है, जो चीज भारत या साउथ एशिया मे अश्लील मानी जाती है, वो डेनमार्क और दूसरे स्कन्डनेवियन देशो मे सामान्य मानी जाती है,यूरोप और अमरीका मे वैचारिक स्वतन्त्रता, अब जबकि इन्टरनेट के युग मे देशो की दूरिया तो मिट गयी है, लेकिन विचारो की दूरिया मिटना अभी बाकी है.
एक और बात... यह सब नैतिकता वगैरहा की बाते बस हम मध्यमवर्ग वालो को ही क्यों दिखायी पड़ती है, क्योंकि उच्चवर्ग वाला तो किसी की परवाह नही करता, यह वर्ग वही करता है जो उसकी मर्जी होती है, और रही बात निम्न वर्ग वालों की उसको तो इन सब बातो पर सोचने के लिये समय ही नही होता, रोजी रोटी के जुगाड़ मे ही सारा दिन निकल जाता है. इन दोनो ही वर्गो मे सेक्स को लेकर काफी खुलापन है या कहे कि काफी उन्मुक्तता है,बस हम ही लोग फंस के रह जाते है, समाज,जाति और सोसाइटी के पचड़े मे, अब जब दो बहुसंख्यक वर्गो के लोग अपनी मनमर्जी चला रहे है तो हम अल्पसंख्यक वर्ग इस पर सोच विचार करके भी क्या उखाड़ लेगें. क्या हम कभी उच्च और निम्न वर्ग की जीवनशैली को बदल पायेंगे? नही.......तो फिर हम कौन होते है उनकी तरफ से फैसला करने वाले?
रही बात बच्चो पर इन सबका प्रभाव पड़ने की, यह एक चिन्तनीय विषय है, मेरा तो यह मानना है कि हम अपने बच्चो को बचपन से ही इन सब बातों के बारे मे थोड़ा थोड़ा बताना शुरू कर दे, सेक्स शिक्षा अनिवार्य कर दे, ताकि उनके मन मे किसी प्रकार की उत्कंथा ना रहे.फिर भी भौंडेपन के प्रचलन पर कुछ तो रोक लगानी ही पड़ेगी, अब इस गाने की ही मिसाल ले, यह गाना जिस अंग्रेजी गाने से प्रभावित होकर बनाया गया था, उसमे सिंगर इतनी बुरी नही लगती, जितनी हिन्दी गाने मे लगती है.
पुराने जमाने मे हमे याद है, पहले पहल सेक्स के बारे मे हमारी जानकारी काफी कम थी, बचपन से ही समझाया गया था कि सेक्स एक वर्जित शब्द है और शादीशुदा लोग ही इसके बारे मे जानते है, कभी कोई इस बारे मे बात करना नही चाहता था. फिर भी क्या कोई हमारी जानकारी पर रोक लगा सका? अपने दिल पर हाथ रखकर बताईये, क्या आपको अपनी शादी से पहले सेक्स के बारे मे जानकारी नही थी? , क्या कभी किसी हीरो/हिरोइन को अपने ख्यालों मे फैंन्टसाइज नही किये थे? , अगर उस समय हम पर रोक नही लग सकी, जब रेसोर्सेस कम थे, तो आज इस पीढी पर क्या लग सकेगी? बस फर्क इतना सा है, तब हम हर वर्जित बात और एक्शन का इजहार, एकान्त मे किया करते थे, आज की पीढी खुले मे करती है.यह तो बस जनरेशन गैप है.
लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है, यदि हम समझते है कि हमारा एक बड़ा वर्ग,इन सबका विरोध कर रहा है, तो हमे इन सब सीरियल,वीडियोस और फिल्मो का त्याग करना पड़ेगा, और इन्हे अपने हाल पर छोड़ देना होगा, कुछ समय बाद जब इन्हे देखने वाले ही नही रहेंगे तो बनाने वाले भी पतली गली से निकल लेंगे..सीधा सीधा डिमान्ड और सप्लाई का फार्मूला है, अगर डिमान्ड गिर जायेगी तो सप्लाई अपने आप कम हो जायेगी.......... और कंही यदि ये फिल्मे और सीरियल ज्यादा हिट होते है, तो हमे अपनी सोच पर फिर विचार करना होगा और अपने आपको बदलना होगा और समाज मे होने वाले नये बदलावो को स्वीकार करना होगा कि शायद वक्त का यही तकाजा है. ..फिर हमारे पास दूसरा ही सवाल होगा......क्या समय आ गया है, हमे अपने आपको बदलने का?
कुवैत मे बिजली गुल
कल यानि रविवार ३१ अक्टूबर,२००४ के दिन कुवैत मे दिन के १ बजे, पूरे देश की बत्ती गुल हो गयी, मेरे मित्र जो भारत मे रहते है, पूछेंगे, तो इसमे कौन सी बड़ी बात है, ये तो भारत मे हर रोज होता रहता है, भइया इन्डिया मे तो यह बहुत सामान्य बात है, लेकिन कुवैत मे यह असमान्य है, क्योकि लगभग तेरह या चौदह साल बात यहाँ बत्ती गयी है. तो अब है ना असामान्य बात
यह समस्या किसी तकनीकी खराबी के कारण आयी थी, जिसे लगभग शाम तक ठीक कर लिया गया, अब बिजली वापस आ गयी है.बिजली के जाते ही लोगो ने अपने अपने मोबाइल से फोन करने शुरू कर दिये जिससे ओवरलोड हुआ और मोबाइल सेवा भी लगभग ठप्प पड़ गयी, लोगो को आशंका हुई तो दौड़े अपनी अपनी गाड़ी उठा कर घर की तरफ. अब जब बत्ती ही नही तो सड़क पर ट्रेफिक लाइट कहाँ से चलेगी, हर तरफ अफरतफरी का माहौल था, आप खुद ही देख लीजिये.....
वैसे भी ट्रेफिक वाला पुलिसमैन जैसा बन्दा तो यहाँ नही होता, सो लग गया घन्टो जाम सड़क पर, लेकिन भगवान का शुक्र है कि कोई दुर्घटना नही घटी, जैसे तैसे ट्रेफिक आगे बढा, और लोग अपने अपने घर पहुँचे, वहाँ भी बिजली नही, तो क्या करे, ये तो भला हो करवा चौथ के त्योहार का जो कुछ पूजा पाठ मे टाईम पास हुआ, वैसे जैसे ही पूजा वगैरहा खत्म हुई, बिजली लौट आयी, लेकिन बिजली के जाने ने सबको नानी तो याद करवा ही थी..... कैसे? अरे भइया आठ आठ मंजिल सीढियां जो चढनी उतरनी पड़ी लोगो को.
कुछ भी हो ३१ अक्टूबर का दिन कुवैत के इतिहास मे दर्ज हो ही गया.
यह समस्या किसी तकनीकी खराबी के कारण आयी थी, जिसे लगभग शाम तक ठीक कर लिया गया, अब बिजली वापस आ गयी है.बिजली के जाते ही लोगो ने अपने अपने मोबाइल से फोन करने शुरू कर दिये जिससे ओवरलोड हुआ और मोबाइल सेवा भी लगभग ठप्प पड़ गयी, लोगो को आशंका हुई तो दौड़े अपनी अपनी गाड़ी उठा कर घर की तरफ. अब जब बत्ती ही नही तो सड़क पर ट्रेफिक लाइट कहाँ से चलेगी, हर तरफ अफरतफरी का माहौल था, आप खुद ही देख लीजिये.....
वैसे भी ट्रेफिक वाला पुलिसमैन जैसा बन्दा तो यहाँ नही होता, सो लग गया घन्टो जाम सड़क पर, लेकिन भगवान का शुक्र है कि कोई दुर्घटना नही घटी, जैसे तैसे ट्रेफिक आगे बढा, और लोग अपने अपने घर पहुँचे, वहाँ भी बिजली नही, तो क्या करे, ये तो भला हो करवा चौथ के त्योहार का जो कुछ पूजा पाठ मे टाईम पास हुआ, वैसे जैसे ही पूजा वगैरहा खत्म हुई, बिजली लौट आयी, लेकिन बिजली के जाने ने सबको नानी तो याद करवा ही थी..... कैसे? अरे भइया आठ आठ मंजिल सीढियां जो चढनी उतरनी पड़ी लोगो को.
कुछ भी हो ३१ अक्टूबर का दिन कुवैत के इतिहास मे दर्ज हो ही गया.
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