देश मे दशहरे के समापन के साथ साथ रामलीलाओ का दौर भी समाप्त हो गया, लेकिन कल ही हमे टीवी पर रामलीला की एक झलक देखने को मिली, पुरानी यादे फिर ताजा हो गयी.... कि कैसे हम लोग रामलीला के शुरू होने का इन्तजार करते थे.. रामलीला वाले सात बजे पहुँचते थे, लेकिन हम लोग अपने साथी सखाओ के दल बल सहित बाकायदा पाँच बजे पहले वाली पंक्ति मे विराजमान हो जाते थे.साथ मे मुंगफली और लइया चने का पूरा स्टाक लेकर. मजाल है कि कोई पहली वाली लाइन मे बैंठ जाये.....लेकिन कभी कभी हमे देर हो जाती थी तो संगी साथी अपना बोरा या अंगोछा बिछा कर जगह घेर लिया करते थे. लेकिन जगह घेरने मे जो मुंहाचाई और कभी कभी हाथापाई होती थी, उसकी तो बात ही निराली है. मेले मे झूले ना हो ऐसा कैसे हो सकता है, और झूले वाला हमसे त्रस्त ना हो वो भी नही हो सकता, सो जनाब झूले वाले तो हमको झूले मे चढाने से मना कर देते थे.. कयोंकि हम तो उतरने का नाम ही नही लेते थे.....लगभग यही रवैया बाकी स्टाल्स वालों का होता था.........अब खाने पीने की बात कर ली जाये........वो बर्फ का मक्कू और गैस वाला सोडावाटर,इमली चूरन की ठिलिया,देशी आइसक्रीम या चाट पकौड़ो की गुमटी, कोई हाइजीन की प्रोबलम नही कोई फूड प्वाइजनिंग का डर नही..... जाने कहाँ गये वो दिन.
रामलीला का मौसम शुरू होते ही हम लोग स्कूल गोल करना शुरू कर देते थे....ऐसा नही था कि हम पढने मे होशियार नही थे... लेकिन मन तो मनचला होता है, इधर उधर ना भटके ऐसा कैसे हो सकता है. घर से कह कर निकलते थे कि स्कूल जा रहे है, पहुँच जाते थे, मेले वाली जगह पर, स्कूल वालों ने पहले पहले ऐतराज किया लेकिन बाद मे उनको भी पता चल गया कि, यह हफ्ता तो मै स्कूल नही जाऊंगा,इसलिये कहना छोड़ दिया था... ...... हमारा लगभग सारा समय रावण के पुतले बनाने वाले मुन्नन खाँ को देखते हुए निकलता था, कैसे उनके सधे हुए हाथ रावण और दूसरे पुतले बनाने मे जुटे रहते थे, मन ही मन ठान लिया था कि इसी को अपना कैरियर बनायेंगे, ये तो लानत पड़े कम्प्यूटर वालों को अच्छे खासे क्रियेटिव बन्दे को इस प्रोफेशन मे डाल दिया, ना होता बांस ना बजती बांसूरी., हम मुन्नन खाँ से हर बात का मतलब पूछा करते, हर सींक,सलाई और गांठ के बारे मे तब तक पूछते रहते जब तक मुन्नन खाँ झल्लाकर हड़काने के मूड मे ना आ जाते... लेकिन मजाल है कि हम अपने सवाल को छोड़ दें... फिर भी टंगे रहते थे. मुन्नन खां के सर पर, थक हार कर मुन्नन खाँ को सब बताना पड़ता.. कई बार तो हमे मुन्नन खां के असिस्टैन्ड द्वारा गुम्मा तक लेकर दौड़ाया गया.. लेकिन हमारा पुतला क्रियेशन प्रेम था कि खत्म ही नही होता.मुन्नन खाँ की दोस्ती ने ही हमे प्रेरित किया कि हम भी अपने मोहल्ले मे रावण का पुतला जलायें..
हमने मुन्नन खां से बात की..... दोस्ती का वास्ता दिया और सस्ते मे पुतला बनाने का वादा ले लिया.अब जब मुन्नन खां हमारे मित्र थे तो मजाल है कि कमेटी का अध्यक्ष कोई और बन सकें....., सो हमारे ही नेतृत्व मे कमेटी गठित हुई .. अब मसला था पैसो के जुगाड़ का, सभी लोगो ने अपने अपने जेबखर्च से पैसे बचा बचा कर रावण के पुतले के लिये पैसे एकत्र किये.., अपने अपने गुल्लक भी तोड़े,. फिर भी पूरे नही पड़े तो फिर हमने मोहल्ले मे चन्दा करने की ठानी.. कुछ लोगो ने वादे किये, कुछ ने टरकाया,कुछ ने इनकरेज किया, कुछ ने पैसे दिये... कुछ ने जुतियाया... कुछ ने हमारे घर मे शिकायत करने की धमकी दी... अब वो जज्बा ही क्या जो धमकियों से डर जाये... पड़ोस वाले वर्मा जी, जिन्होने चन्दा देने से इन्कार किया था, उनके स्कूटर की हवा रोज निकाल दी जाती थी, कुछ दिन तो उनको समझ मे नही आया कि ऐसा कैसे हो जाता है, फिर जब समझ मे आया तो एक दिन पूरी की पूरी वानर सेना की कस कर पिटाई कर दी, हमे याद है तब हम लोगो के कसम खायी थी कि वर्मा को चैन से नही जीने देंगे, और हम रोज नये नये मंसूबे बनाने लगे कि कैसे वर्मा को परेशान किया जाय.हमने वर्मा के दोस्तो और दुशमनो का पता करना शुरू किया, हमे सफलता मिल ही गयी.. मोहल्ले का एक छुटभइया दादा, जिसका एकतरफा चक्कर वर्मा की बड़ी बेटी से चल रहा था, और उसने एक लव लैटर लिख रखा था और लड़की को देने के लिये किसी तरह से वर्मा के घर मे इन्ट्री की फिराक मे था.... उसने हमे सहयोग का वादा किया. प्लान के मुताबिक वानर सेना ने वर्मा के स्कूटर की स्टेपनी गायब कर दी, वर्मा की बालकनी का बल्ब उड़ा दिया और उसकी काल बैल तक है से था कर दी... और तो और बाहर रखे गमले भी नही छोड़े गये, वर्मा को पता तो था कि यह सब काम हमारी वानर सेना का ही है, लेकिन सबूतो के अभाव मे वो कुछ भी नही कर सके... लास्ट मे उस छुटभइये दादा को हमने चन्दा लेने या कहो निगोसियेशन करने के लिये वर्मा के घर भेजा, वो धरना देकर वर्मा के घर बैठ गया, और मौका देखकर लव लैटर वर्मा की बड़ी लड़की को थमा दिया....बहुत हील हुज्जत के बाद......आखिरकार वर्मा ने भी थक हारकर और हाथ जोड़ कर उसको चन्दा दे ही दिया, चन्दा मिलते ही वर्मा का सारा सामान अपनी अपनी जगह पर वापस पहुँच गया, छुटभइये दादा ने भी अपनी सैटिंग जमा ली थी.....काफी दिनो तक वर्मा हमे टेढी नजरों से देखते रहे....हमने कुछ दिन वर्मा के घर की तरफ जाना ही छोड़ दिया..... हमे कोई परवाह नही थी.... चन्दा तो मिल ही चुका था... बाकी के बचे पैसो का जुगाड़ करके किसी तरह से रावण बनाने का सामान इकट्ठा किया गया और मुन्नन खां से सम्पर्क किया गया.
मुन्नन खां ने रावण का पुतला बनाया जो रावण का कम और मेघनाथ का ज्यादा लग रहा था.. हमने मुन्नन खां से पूछा भइया रावण के तो दस सिर होते है, आप तो एक ही बना रहे हो.. मुन्नन खां बोले इतने पैसो मे तो यही बनेगा, रावण का एक ही सर बन जाय तो गनीमत है, ज्यादा की उम्मीद मत रखना. हमे पहली बार बढती महंगाई का ऐहसास हुआ, हमने सरकार पर दस लानते भेंजी लेकिन अब हमे मोहल्ले मे अपनी बेइज्जती का गम सताने लगा, रातो की नींद और दिन का चैन जाने लगा. लगभग प्रमोद महाजन जैसी स्थिति थी, रावण दहन का आयोजन हमारी नाक का सवाल था......हमने वानर सेना से बात की, सर्व सम्मति से हमे कमेटी के हितार्थ कोई भी डिसीजन लेने का अधिकार दे दिया गया, ठीक उसी तरह जैसे राकांपा ने शरद पंवार के दे दिया है.. हमने दिमाग लड़ाया और मोहल्ले की सुषमा आन्टी को पकड़ा जो स्कूल मे टीचर थी,सुषमा आंटी जिनकी हमेशा से इच्छा थी या कहोँ कि मन मे दबी अभिलाषा थी कि किसी नाटक का निर्देशन करें... हमने उनको पूरी बात बतायी, काफी रोये धोये... साल भर उनके कपड़ो को धोबी तक पहुचाने का भी वादा किया....तो उन्होने सहयोग की हामी तो भरी, लेकिन साथ ही एक शर्त भी रख दी, कि उनके निर्देशन मे रामलीला का मंचन भी हो, साथ ही सारी तैयारी अपने सिर लेने का वादा भी किया. अन्धा क्या चाहे दो आंखे सो हमने उनकी सारी शर्ते मन्जूर की, उन्होने अपने स्कूल मे रावण का सिर बनाने का प्रोजेक्ट बच्चों को दिया, इस तरह से रावण की बाकी की नौ मुन्डियो का जुगाड़ हुआ, फिर वानर सेना ने घर घर जाकर पिछली दिवाली के पटाखों का दान इकट्ठा किया और रावण के पुतले को पटाखों से सजाया गया.
दशहरे वाले दिन हम लोगो ने बाकायदा रामलीला का मंचन किया, ये सुषमा आन्टी से डील के तहत हुआ,मुझे बताने मे थोड़ी हिचक हो रही है कि मेरे को सीता का रोल मिला, राम का रोल, पड़ोस मे रहने वाले शर्मा जी के भतीजे ने किया, क्योंकि सबसे ज्यादा चन्दा शर्मा जी ने दिया था. सारा साल मेरे को दोस्तो से सीता सीता सुनकर छिड़ना पड़ा था.....अब शर्मा अंकल के घर टेलीविजन ना होता तो मै तो शर्मा के भतीजे की तो ऐसी तैसी कर देता, मतलब? अरे यार शर्माजी से पंगा लेते तो चित्रहार और सनडे की पिक्चर फिर कहाँ देखते? ..........खैर जनाब, किसी तरह से रामलीला का मंचन हुआ, इसकी भी एक अलग कहानी है.. इस पर फिर कभी.........रावण के पुतले का दहन हुआ, हमने फक्र से अपना सिर ऊंचा किया और इस तरह हमारा नाम मोहल्ले के क्रियेटिव लफंगो मे शुमार होने लगा.. क्रियेटिव लफंगा क्यों?.. अरे भाई क्रियेटिव इसलिये कि सारा आइडिया मेरा था और लफंगा इसलिये के सब लोग वानर सेना के चन्दा कलैक्ट करने के तरीको से त्रस्त थे, सो वानर सेना के मुखिया को लफंगा नाम नही देते तो और क्या देते?
Sunday, October 24, 2004
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
जीतेंद्र भाई, मेरे हाथ में ईंडियाब्लागर्स की कमान होती तो सर्वश्रेष्ठ हँसोड़ ब्लाग एंट्री का पुरस्कार ईसी कथा को मिलता|
आज फिर से पढा इसको.बहुत अच्छा लगा.मजा आया.वर्माजी की बिटिया की कहानी कुछ आगे भी बढी थी कि फुंक गयी थी पुतले के साथ?
Post a Comment